५६, ७५ और १०९ के फुट नोट के साथ तुलसीदासजी
के दोहे दिखा दिए गए हैं। इनमें कोई बात विशेष
उल्लेखनीय नहीं है। रहीम ने कहीं-कहीं बहुत थोड़ा
परिवर्तन करके ही उसको अपने दोहों में स्थान दिया
है। रहीम ने तुलसीदासजी के, एक दोहे का भाव अपने
एक बरवे में लेकर अच्छा कर पाया है।
जन्म सिंधु पुनि बन्धु विष, दिन मलीन सकलंक।
सिय-मुख समता पाव किमि, चन्द्र बापुरो रंक॥
छीन मलिन विष भैया, औगुन तीन।
मोहिं कह चन्द बदनिया, पिय मति-हीन॥
तुलसीदासजी ने स्वेष्टदेव श्रीरामचन्द्रजी-द्वारा एकान्त
में सीताजी के रूपकी कल्पना कराई है। सीताजी की मुख-
सुन्दरता की समता के लिए चन्द्रमा को सामने रख कर
विचार किया है। लेकिन उसमें कई अवगुण निकल
आने से उसे 'बापुरो रंक' कहकर समता से हीन
कर दिया। परन्तु रहीम ने एक रूप-गर्विता के मुख से यही
सब बातें कहलाई हैं। प्रसंग यह था कि कहीं उसके
प्रेमी ने भूल से अथवा अज्ञानवश, उसकी सुन्दरता पर
मुग्ध होकर, प्रेमालाप में उसे चन्द्रवदनी कह दिया था।
बस इसी पर वह इतनी बिगड़ी कि अपनी सखी से