इस प्रकार वृन्द का दोहा रहीम से कुछ अच्छा ही बन पाया है,खराब नहीं।
सौदा करो सो करि चलो,रहिमन याही हाट ।
फिरि सौदा पैहो नहीं,दूरि जान है बाट ॥
या दुनिया में आइकै,छोड़ि देइ तू ऐंठ ।
लेना है सो लेइले,उठी जात है पैंठ ॥
उपरोक्त दोहे में भी वृन्द ने रहीम के भाव को अधिक स्वाभाविक रीति से दिखाया है।
इसे समाप्त करने के पूर्व मैं अपने ज्येष्ठबन्धु श्रीयुत पं० राघवेन्द्र शर्मा त्रिपाठी ( व्रजेश ) तथा योगेन्द्र शर्मा त्रिपाठी और व्रजभाषा-काव्य-मर्मज्ञ श्रीयुत पं० कृष्ण- विहारीजी मिश्र बी० ए०,एल्-एल्० बी०, पं० भागीरथ-प्रसादजी दीक्षित तथा पं० भवानीशंकरजी याक्षिक को कृतज्ञता प्रकट किए विना नहीं रह सकता,क्योंकि समय-समय पर आप महानुभावों से मुझे इस कार्य में बड़ी सहायता मिली है।
गोनी, पो० अतरौली, विनयावनत, जिला, हरदोई। सुरेन्द्रनाथ तिवारी । १-५-२६
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