जैसी तुम हमको करी, करी करी जो तीर। .
बाढ़े दिन के मीत हौ, गाढ़े दिन रघुबीर ॥ ६४ ॥
जैसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह।
धरती ही पर परत सब, सीत घाम अरु मेह ॥६५॥
जो रहीम ओछो बढ़ेै, तौ तितही इतराइ ।
प्यादे से फरजी भयो, टेढो-टेढो जाइ ॥ ६६ ॥
जो विषया सन्तन तजी, मूढ़ ताहि लपटात ।
ज्यों नर डारत बमन करि, स्वान स्वाद सों खात ॥ ६७॥
जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट ।
समय परे ते होति है, वाही पट की चोट ॥ ६८ ॥ *
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग ।
चन्दन बिष ब्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ॥६६॥
जो बड़ेन को लघु कहौ, नहिं रहीम घटि जाहिं ।
गिरिधर मुरलीधर कहे, दुख कछु मानत नाहिं ॥ ७० ॥
जो पुरुषारथ ते कहूँ, सम्पति मिलति रहीम ।
पेट लागि बैराट घर, तपत रसोई भीम ॥ ७१॥
जो रहीम गति दीपकी, कुल कपूत की सोइ ।
बारे उजियारो लगै, बढ़े अँधेरो होइ ॥ ७२ ॥ +
६६-१-शतरंज के मोहरे ।
- ६८-देखो दोहा नं. ६३
+ ७२–एक दूसरा दोहा इसके प्रतिकूल भी है:- जो रहीम गति दीप की, कुल सपूत की सोइ । बड़ो उजेरो तेहि रहे, बढ़े अंधेरो होइ ॥ देखो दोहा नं० ८१