पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
9
दोहे।।

जैसी तुम हमको करी, करी करी जो तीर। .

बाढ़े दिन के मीत हौ, गाढ़े दिन रघुबीर ॥ ६४ ॥


जैसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह।

धरती ही पर परत सब, सीत घाम अरु मेह ॥६५॥


जो रहीम ओछो बढ़ेै, तौ तितही इतराइ ।

प्यादे से फरजी भयो, टेढो-टेढो जाइ ॥ ६६ ॥


जो विषया सन्तन तजी, मूढ़ ताहि लपटात ।

ज्यों नर डारत बमन करि, स्वान स्वाद सों खात ॥ ६७॥


जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट ।

समय परे ते होति है, वाही पट की चोट ॥ ६८ ॥ *


जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग ।

चन्दन बिष ब्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ॥६६॥


जो बड़ेन को लघु कहौ, नहिं रहीम घटि जाहिं ।

गिरिधर मुरलीधर कहे, दुख कछु मानत नाहिं ॥ ७० ॥


जो पुरुषारथ ते कहूँ, सम्पति मिलति रहीम ।

पेट लागि बैराट घर, तपत रसोई भीम ॥ ७१॥


जो रहीम गति दीपकी, कुल कपूत की सोइ ।

बारे उजियारो लगै, बढ़े अँधेरो होइ ॥ ७२ ॥ +

६६-१-शतरंज के मोहरे ।

  • ६८-देखो दोहा नं. ६३

+ ७२–एक दूसरा दोहा इसके प्रतिकूल भी है:- जो रहीम गति दीप की, कुल सपूत की सोइ । बड़ो उजेरो तेहि रहे, बढ़े अंधेरो होइ ॥ देखो दोहा नं० ८१