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पृष्ठ:राजविलास.djvu/१९६

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राजविलास । १८९ जालंधर जाइ सीस कालिका समप्पै । जो दिशि दिशि बल देइ काइ तिल तिल करि कप्पै । जागती जोति ज्वालामुषी जो ज्वालावलि में फँसे । राजेश राण कहि साहि सुनि बहुरि जनम ले भल बसै ॥२३॥ ॥ दोहा ॥ अनुग हत्थ फुरमान इह, दयो तृतीय दिवान । तहि फुनि करिके गति तुरत, सौंप्यो जइ सु बिहान ॥२४॥ बंचि साहि सब ही बिगति, जानि हिन्दुपति जोर । बढ़न कज्ज तबहीं बिपल बज्जी बंब बकार ॥ २५ ॥ धुर कत्तिय पंचमि सु ध्रुव, सागर जल ज्यों सेन । सज्जि चल्यो दिल्लीस वर, रबि नभ ढंकिय रेनु ॥२६॥ ॥ छंद भुजंगी ॥ चढ्यो सेन सज्जें सुबाजी चकत्ता । मनो मास भद्दी महा मेघ मत्ता ॥ सजें सिधुरं पाखरंगं सनांहं । करे बंधि षग्गं दुधारा दुबाहं ॥ २७ ॥ किन पिटि सज्जे लसे नारि गोरं । किन पिट्टि नेजा धजा बै किशारं ॥ किनं पिटि सोहै ढलकति ढल्ल । किनं लोह काठी हठे मग्ग हल्ल॥ २८ ॥ किनं बंधि कट्टार सुडार दंते । किनं पिहि डोला चले इक्क पत्ते ॥,ठनंकार घंटा रवं तं घनके । घनं घुघरं पाइ ग्रीवा षनंके ॥ २८ ॥ .. झरे दान गंधंभव भार मौरं । लसे तेल सिंदूर