पृष्ठ:राजसिंह.djvu/१३३

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सातवाँ दृश्य (स्थान-उदयपुर । सोलकी दलपत का घर । सौभाग्यसुन्दरी अकेली छज्जे मे खडी, मैदान मे सुसज्जित सेना को देख रही है । समय-प्रातःकाल) सौभाग्यसुन्दरी-(स्वगत) यही तो राजपूती शान है । राज- महल का यह विशाल प्राङ्गण वीरों से भरपूर होकर कैसा दैदीप्यमान हो रहा है। चपल घोड़े जैसे धीरज खो रहे हैं। कब मालिक का संकेत हो और वे अपनी उछलती चाल का रंग दिखावें । वीरों के शस्त्र प्रभात की इस मनोरम धूप में किस भांति चमक रहे हैं । वह मेरे प्राणों के धन श्वेत घोड़े पर सवार सेना का निरीक्षण कर रहे हैं। उनके कण्ठ का वह मुक्ताहार कैसा प्यारा लग रहा है । कल जब उन्होंने मुझे छुआ तो जैसे जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ हो गया। आज यह प्रभात कैसा मनोरम दीख रहा है। ऐसा ही तो जीवन का प्रभात भी होता है । (विभोर होकर) प्रिये ! प्रिये ! कैसा प्यारा शब्द था। सुनकर रोम रोम पुलकित हो गया। इच्छा होती है, बारम्बार वह शब्द सुनूं । वही शब्द, वही मधुर संगीत स्वर से भी अधिक मधुर स्वर । (चौंककर) परन्तु