राजसिंह [आठवाँ जा रहा है। (देखकर) तुम्हारी स्मृति कितनी मधुर, तुम्हारा चिन्तन कैसी तपस्या, तुम्हारा गुणगान कैसा आल्हाद कारक है । हे वीर, हे पौरुष के अवतार, यह क्षत्रिय बाला आज अपने नारी जीवन को तुम्हारे अर्पण करती है। (तस्वीर पर माथा टेकती है अकस्मात् निर्मल पाती है।) निर्मल-अरे ! यहाँ यह क्या हो रहा है ? कुमारी-(तस्वीर छिपाकर) कहाँ ? कुछ भी तो नहीं। निर्मल-यह चोरी और सीनाजोरी। अच्छा, कुछ भी नहीं सही। (मुंह फुलाकर चल देती है) कुमारी-रूठ चली क्या ? अच्छा सुन, मैं "मैं जरा कुछ सोच रही थी। निर्मल-क्या सोच रही थीं राजकुमारी? कुमारी-यही-कि (सिटपिटाकर ) कि 'क्या बताऊँ। निर्मल-नहीं बता सकोगी। बहाना बन सका ही नहीं। कुमारी-तू क्या समझती है-बता ? निर्मल-यही कि कुमारी जी कुछ सोच रही थीं। कुमारी-क्या सोच रही थी ? निर्मल-मैं क्या जानू', आपके मन की बात । कुमारी-तृ सब जानती है बता ? निर्मल-वह तस्वीर दीजिये, बताऊँ। कुमारी-(घबराकर) कौनसी वस्वीर!
पृष्ठ:राजसिंह.djvu/८३
दिखावट