सादिक मोहम्मद खाँ मे उसके पिता की तरह के अच्छे गुण नहीं थे। मारवाड़ का विजयसिंह उसके पिता को अपना भाई कहकर सम्बोधित करता था। दाऊदपोतरा के सरदारों में मेल नहीं रहता। वे एक-दूसरे के साथ लडा करते है। वहाँ के लोग भाटी लोग चोरी और लूट का काम करते हैं और उसके बदले में दाऊदपोतरा के सरदारों को कर देते हैं। लेकिन इन भाटी लोगो के दिलो में उन सरदारों के लिए कोई विशेप सम्मान नहीं है। भावलपुर के सरदार को कन्धार से अब किसी प्रकार की आशका नहीं रहती। वह सरदार अपने पड़ोसी राज्यो के साथ मिलकर चलता रहता है। लाहौर के रणजीत सिंह की धमकियाँ कभी-कभी उसे मिलती हैं। उनसे भावलपुर का सरदार कभी-कभी भयभीत हो उठता है। बीमारियाँ- मरुभूमि में अनेक प्रकार के रोग पाये जाते हैं। इन रोगों का बहुत- कुछ कारण यह भी है कि वहाँ के लोगों को अच्छा भोजन नहीं मिलता। वहाँ पर ऐसे लोगों की संख्या अधिक है, जो पेट-भर भोजन नहीं पाते। इस अभाव के कारण उनको जो कुछ मिलता है, खा लेना पड़ता है। पीने का जल स्वच्छ और स्वास्थ्य जनक नहीं मिलता। इसका परिणाम यह है कि रतौंधी, नारू और इस प्रकार के दूसरे रोगो ने वहाँ के निवासियो का स्वास्थ्य नष्ट कर डाला है। रतोधी और वेरी कोस के रोग उन्हीं लोगों को अधिक होते हैं, जिनको मरुभूमि में अधिक दौड़ना-धूपना और चलना पड़ता है। मरुभूमि की जलती हुई धूप ने उनके शरीर के रंग को काला बना दिया है। मरुभूमि का जीवन इन गरीबों के लिए अत्यन्त संकटपूर्ण है। उनके शरीर के अंगों को अनेक प्रकार की क्षति पहुंचती है। लेकिन वहाँ के निवासी इन सब बातों के ऐसे अभ्यासी हो गये है कि वे कभी अपने इस संकटपूर्ण जीवन की आलोचना तक नहीं करते। मरुभूमि के लम्बे मैदानों में अधिक चलने के कारण वहाँ के लोगों के पैरो की नसे इतनी मोटी और भद्दी हो जाती हैं कि मालूम होता है कि उनकी पिण्ड्डलियों मे पट्टियों बँधी हैं। अधिक चलने के कारण उनके पैरों की नसों का यह दृश्य हो जाता है। नारू रोग से तो यहाँ के किसी भी आदमी का बचाव नहीं हो पाता। यह रोग एक किसान से लेकर राज परिवार के लोगों तक में पाया जाता है। कदाचित ही यहाँ का कोई मनुष्य इस नारू रोग से बच पाता है। मरुभूमि, पश्चिमी राजस्थान और उसके बीच के राज्यो में यह रोग नही होता परन्तु अरावली पर्वत की दूसरी तरफ रहने वालों मे यह रोग इतना अधिक होता है कि वहाँ के लोग जब एक दूसरे से मिलते हैं तो वे उनसे इस रोग का हाल सबसे पहले पूछते हैं। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि वहाँ पर रहने वालों में यह रोग बहुत अधिक पाया जाता है। इस रोग में इतनी अधिक पीड़ा होती है, जिसकी सहन करने की शक्ति बहुत कम लोगो में पायी जाती है। शरीर रोमछिद्रों में सूक्ष्म रेत के प्रविष्ट हो जाने से यह रोग पैदा होता है। चर्म के भीतर उस रेत के अणुओं के पहुंच जाने पर उस स्थान की खाल के ऊपर एक दाग पैदा होता है। वह धीरे-धीरे बढ़ कर सम्पूर्ण शरीर में जलन और सूजन पैदा करता है। उस समय शरीर के भीतर कीड़ा पैदा हो जाता है और वह चलता-फिरता है। उस कीड़े की गति कभी-कभी अधिक तेज हो जाती है। उस दशा मे रोगी को असह्य कष्ट होता है। इसके लिए अनुभवी चिकित्सक बुलवाया जाता है। वह सूई के पतले धागे द्वारा उस कीड़े के सिर को पकड़कर निकालने की चेष्य करता है। शरीर के भीतर उस धागे के ट्ट जाने अथवा रह जाने से कई गुना सूजन और जलन बढ़कर मवाद देने लगती है। रोगी की यह दशा बड़ी भयानक होती है। - 92
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