सफल हुये थे। उसका विरोधी फीरोज विप देकर मारा गया और उसके प्रभाव में रहने वाली राज्य की बड़ी रानी भी इस संसार से चली गयी थी। यहाँ तक सफलता प्राप्त करने के बाद खुशहाली राम ने आमेर के विरुद्ध एक नया पड़यन्त्र किया और उसके फलस्वरूप हमदानी खाँ के नेतृत्व में बादशाह की एक सेना ने आमेर में प्रवेश किया। उस समय आमेर के मन्त्रिमण्डल मे यह प्रश्न पैदा हुआ कि अब आमेर की रक्षा कैसे की जाए। इसी समय मन्त्रिमण्डल के कुछ लोगों ने मराठो के साथ सन्धि करने की सलाह दी। यह सन्धि हो गयी। लेकिन दूसरे ही दिन वह सन्धि भंग कर दी गयी। इसका परिणाम यह निकला कि राज्य में कुछ दिनों तक भयानक अशान्ति रही। चारों तरफ अत्याचार होते रहे और गरीब प्रजा लूटी जाती रही थी। दुर्भाग्य से इन दिनों को पार करके प्रतापसिंह समर्थ हुआ। उसने शासन अपने हाथ में लिया और जिन लोगो के कारण राज्य की यह दुरवस्था हुई थी, उनको निकाल कर उसने अत्याचारी मराठों का दमन करने की प्रतिज्ञा की। इन दिनो में मराठों के अत्याचार भारतवर्ष के अनेक स्थानों पर हो रहे थे। उन लोगों ने राजस्थान के विभिन्न राज्यों पर लगातार आक्रमण करके पैशाचिक अत्याचार किये थे और भयानक रूप से राज्यो को लूटा था। प्रतापसिह ने इन्ही दिनों में आमेर राज्य का शासन- प्रबन्ध अपने हाथो में लिया था। युवक प्रतापसिंह अत्यन्त स्वाभिमानी और साहसी था। मराठों के द्वारा चारों ओर जो अत्याचार हो रहे थे, उनको सुनकर उसका खून उबल रहा था। सन् 1787 ईसवी के इन दिनो में विजयसिंह मारवाड़ के सिंहासन पर था। प्रतापसिंह ने बहुत सोच- समझकर अपना एक पत्र दूत के द्वारा विजयसिंह के पास भेजा। उसमें उसने लिखा- "मराठों के द्वारा होने वाले अत्याचारों से आप अपरिचित न होंगे। इन मराठों ने चारों ओर जिस प्रकार निष्ठुर अत्याचार कर रखे है, उनको देखकर मेरे हृदय में बडी पीड़ा हो रही है और मैं किसी भी अवस्था में उनका दमन करना आवश्यक समझता हूँ। इसके लिए यदि समस्त राजपूत राजा मिलकर मराठों पर आक्रमण करें तो शत्रुओं की पराजय आसानी के साथ हो सकती है। इन अत्याचारी मराठों के साथ युद्ध करने के लिए मैं स्वयं अपनी सेना के साथ जाऊँगा। यदि आप हमारी सहायता में अपने राज्य की राठौर सेना भेज सकें तो शत्रुओं का विनाश और पराजय बिना किसी सन्देह के हो सकती है। एक बार ऐसा कर देने से राजस्थान के सभी राजाओं की स्वाधीनता सुरक्षित रह सकेगी।" प्रतापसिंह के इस पत्र को पढ़कर विजयसिंह प्रभावित हुआ। मारवाड़-राज्य में एक नया उत्साह पैदा हुआ। वहाँ की सेना आमेर की सेना के साथ मिलकर अत्याचारी मराठों के साथ युद्ध करने के लिए तैयार होने लगी। उन्हीं में मारवाड़ के राजा विजयसिंह ने मराठों के अधिकार से अपना आमेर का राज्य वापस लेने का निर्णय किया। राठौर सेना मारवाड़ से चलकर आमेर की सेना के साथ जाकर मिल गयी। तुंगा नामक स्थान पर मराठों के साथ आमेर और मारवाड़ की सेनाओं का युद्ध आरम्भ हुआ। सिंधिया मराठा सेना का सेनापति था और उसके साथ फ्रॉसीसी सेनापति डीवाईन भी मौजूद था। मराठो और राजपूतो में कुछ समय तक भयंकर संग्राम हुआ। अन्त में सिधिया की पराजय हुई। वह अपनी युद्ध की सामग्री और अस्त्र-शस्त्र भी छोड़कर बची हुई सेना के 128
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