पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/२२८

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में अकाल के कारण बहुत से आदमियों की मृत्यु हुई। परन्तु बूंदी राज्य में किसी को खानेपीने का अधिक कष्ट नहीं मिला। राव भाँडा के इस प्रकार के स्मारक में बूंदी राज्य में अब तक लगर का गूगरी नाम से दीनों और दरिद्रों को अनाज वांटा जाता है। राव भाँडा यद्यपि परम दयालु और परोपकारी था परन्तु जीवन की कठिनाईयों से उसे भी छुटकारा न मिला। समरसिंह और अमरसिंह नाम के दो भाई उससे छोटे थे। इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेने के कारण वे दिल्ली के बादशाह को प्रिय हो गये थे। उन दोनों भाइयों ने बादशाह की सेना लेकर बूंदी राज्य पर आक्रमण किया। राव भाँडा ने शक्ति-भर उस सेना के साथ युद्ध किया। लेकिन बादशाह की फौज बहुत बड़ी होने के कारण राव भाँडा की पराजय हुई। वह अपने राज्य से भागकर मातोंदा नामक स्थान पर चला गया और वहाँ के पर्वत शिखर से गिरकर उसने प्राण दे दिये। राव भाँडा ने इक्कीस वर्ष तक शासन किया। समरसिंह और अमरसिंह ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने के वाद अपने नाम वदल दिये थे और समरकन्दी तथा अमरकन्दी के नामों से उन दोनों ने ग्यारह वर्ष तक बूंदी राज्य में शासन किया। राव भाँडा के दो लड़के थे। एक का नाम था नारायणदास और दूसरे का नाम नरवद था। नरवद मातोंदा ग्राम का अधिकारी हुआ। वयस्क होने पर नारायणदास के मनोभावों में पिता के राज्य का उद्धार करने की भावना उत्पन्न हुई। उसने पठार के समस्त हाड़ा लोगों को एकत्रित करके कहा : "हम लोग या तो बूंदी राज्य पर अधिकार करेंगे अथवा युद्ध-भूमि में अपने प्राण त्याग देंगे।" नारायणदास के मुख से इस प्रकार की बात को सुनकर सभी एकत्रित हाड़ा लोगो ने उत्साह के साथ उसका समर्थन किया। इसके पश्चात् कुछ दिन बीत गये। नारायणदास अपनी अभिलाषा को पूरी करने के लिये तरह-तरह के उपाय सोचता रहा। एक दिन उसने अपने दोनों मुस्लिम चाचाओं के पास सन्देश भेजा किः "मैं अपना सम्मान प्रकट करने के लिये आपके पास आना चाहता हूँ।" ____ अयोग्य और असमर्थ होने के कारण नारायणदास पर उसके चाचा को सन्देह पैदा न हुआ और उन दोनों ने नारायणदास को बूंदी के महल में आने के लिये आदेश दे दिया। इससे नारायणदास को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अपने साथ चलने के लिए कुछ ऐसे लोगों को तैयार किया,जो पूर्ण रूप से विश्वासी, पराक्रमी और शूरवीर सैनिक थे। उनको लेकर नारायणदास यूँदी राजधानी में पहुंच गया और महल से कुछ दूरी पर अपने साथ के लोगों को छिपाकर वह महल की तरफ रवाना हुआ। नारायणदास के दोनों चाचा विना किसी आशंका के महल के भीतर एक कमरे में बैठे थे और दोनों आपस में बातें कर रहे थे। उनके पास किसी प्रकार का कोई अस्त्र न था। नारायणदास ने महल के भीतर प्रवेश किया। उसके मुख-मण्डल पर हिंसा की रेखायें प्रस्फुटित हो रही थीं। उन दोनों को देखकर नारायणदास ने तेजी के साथ आक्रमण किया। उन दोनों ने नारायणदास का यह दृश्य देकर सुरंग के रास्ते से भाग जाने की चेष्टा की। इसी समय नारायणदास ने अपनी तलवार से समरसिंह को आघात पहुँचाकर गिरा दिया और अपने तेज भाले का वार उसने अमरसिंह पर किया। चोट खाकर दोनों जमीन पर गिर गये। उसी समय नारायणदास ने अपनी तलवार से दोनों के सिर काट लिये और वह कटे हुए दोनों 220