पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/४१३

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फ्रांसीसी सेनापति डी. वाइन के साथ लड़ता हुआ वह मारा गया था। स्वतन्त्रता की रक्षा करने के लिए जिस प्रकार वदन सिंह ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था, उसकी स्मृति को कायम रखने के लिए यह स्मारक बनवाया गया है, जिसे देखते ही उसके जीवन का वीरोचित वलिदान मेरे नेत्रों के सामने एकाएक चित्र बनकर दिखायी देने लगा। मारवाड़ के राजा विजय सिंह ने बदन सिंह से झुरुण्डा का इलाका छीन लिया था। किस लिये छीन लिया था इसका कारण नहीं मालूम हो सका। उस दशा में वदन सिंह जयपुर राज्य में चला गया और वहाँ पहुँचकर उसने वहाँ के राजा की शरण ली। जयपुर के राजा ने उसको अपने यहाँ आश्रय दिया और राजपूत राजाओं में प्रचलित प्रथा के अनुसार उसने वदन सिंह को सम्मान पूर्ण स्थान देकर नियुक्त किया। जयपुर में बदन सिंह को कुछ नयापन नहीं मालूम हुआ। वह सम्मान पूर्वक अपने जीवन के दिन व्यतीत करने लगा। बदन सिंह स्वाभिमानी राजपूत था। उसने जयपुर राज्य में रहकर थोड़े दिनों में अपनी शक्तियाँ सम्पन्न बना लीं। इन्हीं दिनों में उसकी जन्मभूमि पर मराठों का आक्रमण हुआ। बदन सिंह को उसका समाचार मिला। मराठों के इस आक्रमण को सुनकर वह चिन्तित ओर पीड़ित हो उठा। राजा विजय सिंह ने बदन सिंह को उसके अधिकार से वञ्चित किया था और वह अपनी असहाय अवस्था में जयपुर राज्य में आया था। इसलिये राजा विजयसिंह के प्रति उसकी भावनायें अच्छी न थीं। लेकिन जब उसने सुना कि मराठों ने एक विशाल सेना लेकर राजा विजयसिंह के विरुद्ध आक्रमण किया है तो वह विजयसिंह की शत्रुता का भाव भूल गया। उसके मन मे अपने पूर्वजों की मर्यादा का भाव उत्पत्र हुआ। किसी भी दशा में इस विपद के समय उसने राजा विजय सिंह की सहायता करने का निश्चय किया। बदन सिंह ने अपने साथ चलने के लिए एक सौ पचास सैनिक सवारों को तैयार किया और उनको लेकर वह अपनी जन्मभूमि एवम् राजा विजयसिंह की स्वतन्त्रता की रक्षा करने के लिये जयपुर से रवाना हुआ। संयोगवंश वह अपने पूर्वजों के प्रदेश में पहुँच न सका और मार्ग में ही मराठा सेना के साथ उसका मुकाबला हो गया। मराठों की विशाल सेना के सामने वदनसिंह के डेढ़ सौ सवार सैनिकों की मामूली हस्ती थी। परन्तु स्वाभिमानी बदन सिंह ने इसकी कुछ भी परवाह न की और उसने साहसपूर्वक मराठों के साथ मार्ग में ही विना किसी तैयारी के युद्ध आरम्भ कर दिया। राजपूत सनिकों की संख्या बहुत थोड़ी थी। फिर भी वे सवके सव अपने हाथों में नंगी तलवारें लिये शत्रु-सेना में घुसे और कुछ समय तक उन्होने भयानक मारकाट की। लेकिन मराठा सेना के द्वारा उनका संहार हुआ। बदन सिंह के शरीर में कितने ही घाव हो गये थे। लेकिन वह किसी प्रकार अपनी जन्मभूमि पहुँच गया। राजा विजय सिंह को इस प्रकार बदन सिह का आना और शत्रुओं के साथ उसका युद्ध करना मालूम हुआ तो वह बहुत प्रसन्न हुआ और उसने झुरुण्डा का इलाका बदन सिंह के वंशवालो को दे दिया। उसने इस बात का भी आदेश दिया कि आवश्यकता पड़ने पर इस प्रदेश की रक्षा वदनसिंह के वश के लोग ही करेंगे। झुरुण्डा की वार्षिक आमदनी सात हजार रुपये है। वदन सिंह के स्मारक के पास मैंने एक दूसरा स्मारक देखा। उसमें प्रताप का नाम लिखा हुआ था। प्रताप एक शूरवीर राजपूत था और अपने प्रदेश की स्वाधीनता के लिये उसने मुगल बादशाह औरंगजेव की सेना के साथ युद्ध किया था। मुगलो की सेना बहुत वडी थी। इसलिए उसके मुकाबले में राजपूतों की पराजय हुई और युद्ध करता हुआ प्रताप मारा गया। 409