तरह आती हैं। गङ्गा के निकटवर्ती नगरों और पंजाब के अनेक स्थानों से बहुत से पदार्थ बिकने के लिये जैसलमेर आते हैं। दुआवे का नील, कोटा और मालवा की अफीम, बीकानेर का गुड़ और जयपुर की बनी हुई लोहे की चीजें जैसलमेर के रास्ते से शिकारपुर और सिंध के अनेक नगरो में जाती हैं। सिन्ध से अफ्रीका के बने हुए हाथी दाँत के अनेक पदार्थ, रंग, नारियल, अनेक औषधियाँ और चन्दन की लकड़ी राज्य में आती हैं। मालगुजारी और कर- जैसलमेर राज्य की मालगुजारी पहले चार लाख रुपये से अधिक होती थी। इसमें तीन लाख रुपये के करीब भूमि की मालगुजारी होती थी। प्राचीन काल में वाणिज्य के शुल्क से राज्य को एक बंधी हुई आमदनी होती थी। परन्तु प्रधान मंत्री सालिम सिंह के अत्याचारों के कारण उस शुल्क के द्वारा होने वाली आमदनी बिल्कुल नष्ट हो गयी। किसी समय इस शुल्क के द्वारा राज्य को लगभग तीन लाख रुपये की आमदनी होती थी। इस शुल्क को वहाँ पर दान और इस शुल्क एकत्रित करने वालों को दानी कहा जाता था। खेती का कर- राज्य के किसान खेती के द्वारा जितना अनाज पैदा करते हैं। उसका पाँचवाँ भाग और कुछ लोग सातवाँ भाग राजा को कर में देते हैं। यह कर राज्य की मालगुजारी के रूप में वसूल होता है। कुछ ऐसा भी नियम है कि किसान के खेतों में जो अनाज अधिक पैदा होता है, कृपक उसी अनाज को राज्य की मालगुजारी में देता है। किसानों के इस अनाज को पल्लीवाल ब्राह्मण और बनिया लोग नकद रुपये देकर खरीद लेते है। उसके बाद वह रुपया राज्य के खजाने में चला जाता है। धुआँ कर- इस कर के द्वारा राज्य को एक बॅधी हुई आमदनी होती है। यह धुआँ कर एक प्रकार का ईंधन कर अथवा भोजन कर है, जो प्रत्येक परिवार से वसूल किया जाता है। इस कर को थाली कर भी कहा जाता है। थाली का अभिप्राय उस वर्तन से है, जिसमें परोस कर भोजन किया जाता है। यह कर प्रत्येक परिवार को देना पड़ता है। इस कर से राज्य को वीस हजार रुपये की आमदनी होती है, जो एक प्रकार से निश्चित रहती है। दण्ड कर-इस नाम से भी राज्य में एक कर वसूल किया जाता है। इसकी वसूली अनिश्चित रूप से होती है। इसका कोई बँधा हुआ नियम नहीं है। राजा को आवश्यकता होने पर राज्य में दण्ड-कर बढ़ा दिया जाता है और उसकी आवश्यकता को इस कर से पूरा किया जाता है। इसलिए इस कर में न्याय को अधिक स्थान नहीं मिलता। जैसलमेर राज्य में दण्ड कर सन् 1774 ईसवी में प्रचलित हुआ था। उस समय इसके अतिरिक्त धुओं अथवा थाली कर निर्धारित किया गया था। व्याज पर रुपया देने वाले वैश्यों से भी कर लिया जाता था और उनसे राज्य को सत्ताईस सौ रुपयों की आमदनी होती थी। माहेश्वरी वैश्यों से यह कर आसानी से वसूल हो जाता था। परन्तु ओसवाल वैश्यों के साथ इस कर के वसूल करने में सख्ती करनी पड़ती था और इसके लिए उन्हें जेल भी भेजना पड़ता था। रावल मूलराज के समय इन वैश्यों ने इस कर की अदायगी के समय बड़ी कठोरता से काम लिया था और अत्यन्त विवश अवस्था में वे लोग इस कर को अदा करते थे। यों तो रावल मूलराज से राज्य में कोई प्रसन्न न था। लेकिन ओसवाल वैश्य अपना असंतोष प्रकट करने के लिए उस समय अपनी दुकान बन्द कर देते थे, जब 61
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