के सिंहासन पर बैठा, उसी वर्ष मालवा और गुजरात के नवाबों ने मेवाड़ पर आक्रमण करने का निश्चय किया और दोनों ही अपनी-अपनी विशाल सेनायें लेकर सम्वत् 1496 सन् 1440 ईसवी में मेवाड़ की तरफ रवाना हुए। नवावों के इस होने वाले आक्रमण का समाचार पाते ही राणा कुम्भ ाने वड़ी तत्परता के साथ चित्तौड़ में युद्ध की तैयारियाँ की और अपने साथ एक लाख सिपाहियों की सेना लेकर-जिसमें चौदह सौ हाथी थे-राणा कुम्भा नवावों की विशाल सेनाओं का सामना करने के लिए चित्तौड़ से रवाना हुआ और अपने राज्य की सीमा के आगे मालवा के मैदानों में पहुँच कर उसने यवन सेनाओं के साथ संग्राम आरम्भ कर दिया। दोनों ओर से भीषण युद्ध हुआ। अंत में राणा कुम्भ की विजय हुई और मालवा के नवाव मोहम्मद खिलजी को कैद करके राजपूत चित्तौड़ ले आये। मोहम्मद खिलजी पूरे छह महीने तक चित्तौड़ की जेल में रहा । भट्ट ग्रंथों के अनुसार राणा कुम्भा ने मोहम्मद खिलजी के ताज को अपनी विजय के प्रमाण में अपने पास रखकर उसको छोड़ दिया था। इसी प्रकार की बात का उल्लेख मुगल बादशाह वावर ने अपनी आत्मकथा में किया है, जिसमे राणा साँगा के लड़के ने अपना मुकुट बादशाह बावर को भेंट में दिया था। अबुल फजल ने भी अपने लिखे हुए इतिहास में राणा कुम्भा की उदारता की प्रशंसा की है। उसने लिखा है कि “राणा कुम्भा ने विना किसी जुर्माने के अपने शत्रु मोहम्मद खिलजी को कैद से छोड़कर अपने श्रेष्ठ चरित्र का परिचय दिया था।" मोहम्मद खिलजी ने राणा कुम्भा की कृतज्ञता को स्वीकार किया और उसके बाद वह राणा कुम्भा का मित्र बन गया। इसके बाद दिल्ली के वादशाह की सेना के साथ झुंझुनूं नामक स्थान पर राणा ने चित्तौड़ की सेना लेकर भयानक युद्ध किया। उसमें राणा कुम्भा की विजय हुई थी। इस युद्ध में मोहम्मद खिलजी अपनी फौज लेकर राणा की सहायता करने के लिये आया था और उसने दिल्ली के वादशाह की फौज के साथ युद्ध किया था। मेवाड़ राज्य में चौरासी दुर्ग हैं। उनमें बत्तीस दुर्ग राणा कुम्भा ने बनवाये थे और इन बत्तीस किलों में कमलमीर का दुर्ग सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसका निर्माण बड़ी मजबूती से किया गया है। यह दुर्ग राणा कुम्भा के बाद कुम्भा मीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ.। इस कुम्भमीर दुर्ग के प्रधान द्वार का नाम हनुमान द्वार है । उसके द्वार पर महावीर की एक बहुत बड़ी मूर्ति है । यह मूर्ति राणा कुम्भा नरकोट से जीतकर अपने साथ लाया था। आवू पहाड़ की एक चोटी पर परमार राजपूतों का एक विशाल दुर्ग बना हुआ था। उसमें वह और उसका परिवार प्रायः रहा करता था । राणा कुम्भा में लोकप्रियता का गुण था। मेवाड़ की प्रजा उस पर बहुत श्रद्धा रखती थी। राणा ने प्रजा की सुविधाओं और राज्य के हितों के लिये बहुत से अच्छे कार्य किये थे और उन्हीं के कारण सम्पूर्ण राजस्थान में उसे वहुत ख्याति मिली। मारवाड़ के मेड़ता निवासी एक राठौड़ सरदार की बेटी मीरावाई के साथ राणा कुम्भा का विवाह हुआ था। मीराबाई वहुत सुन्दर थी और धर्म में बहुत श्रद्धा रखती थी। कृष्ण की स्तुति के सम्बन्ध में उसने कविता के बहुत से छन्द बनाये थे। राणा कुम्भा को कविता करने का शौक था। मीराबाई ने कविता करने का ज्ञान किससे प्राप्त किया, इसका उल्लेख किसी ग्रंथ में नहीं मिलता। मीराबाई ने भगवान के बहुत से मंदिरों के दर्शन किये थे। 1. जोधपुर के मुन्सिफ बाबू देवी प्रसाद ने मीराबाई का जीवन चरित्र लिखा है। उसमें उन्हीं ने टाड साहव की इस वात का विरोध किया है। उनका कहना है कि जिस मीराबाई को वहाँ पर राणा कुम्भा की रानी लिखा गया है, वह जोधपुर के राठौड़ वंश में पैदा हुई थी और उदयपुर के सिसोदिया वंश में राणा सांगा के भोज के साथ ब्याही गयी थी। उसका विवाह सम्वत् 1573 ईसवी में हुआ था। पुत्र 149
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