और सामन्तों के और भी अनेक राज्य और सामन्त शामिल हुए। लेकिन दो सरदार उसमें नहीं आये। उनमें एक का नाम था मालवजी और दूसरा सोलंकी राजपूत था। इन दोनों सरदारों के सम्मलित न होने से चित्तौड़ के सरदार उन पर बहुत अप्रसन्न हुए और उनको इसका सबक सिखाने के लिए चित्तौड़ के सरदारों ने उन पर आक्रमण किया। जो सरदार विवाह में शामिल नहीं हुए थे, वे घबरा कर वनवीर की शरण में पहुंचे। बनवीर उनकी सहायता करने के लिये अपनी सेना लेकर रवाना हुआ। परन्तु वह चित्तौड़ के सरदारों से उन दोनों की रक्षा न कर सका। मालवजी मारा गया और सोलंकी राजपूत सरदार ने भागकर उदयसिंह की अधीनता स्वीकार कर ली। बनवीर अपनी सेना के साथ लौटकर चित्तौड़ पहुँच गया और उदयसिंह का विरोध करने की तैयारी करने लगा। उदयसिंह का विवाह करके चित्तौड़ के सरदार अपनी पूरी शक्ति के साथ चित्तौड़ लौटे । वहाँ पर बनवीर अपनी सेना लेकर उनसे मुकाबले के लिए पहुँचा। एक साधारण लड़ाई के बाद बनवीर की पराजय हुई। वह अपने परिवार के लोगों को लेकर दक्षिण की तरफ चला गया। वहाँ पर उसकी सन्तानों ने नागपुर के भोंसले वंश की स्थापना की। संवत् 1597 सन् 1541-42 ईसवी में सरदारों ने उदयसिंह को चित्तौड़ के सिंहासन पर बिठाया और बड़े समारोह के साथ उसका अभिषेक किया गया। सम्पूर्ण राज्य में खुशियाँ मनाई गईं। चित्तौड़ के सिंहासन पर राणा उदयसिंह के बैठने के कुछ दिनों के बाद मालूम हुआ कि उदयसिंह वहुत अकर्मण्य और अयोग्य है । उसमें एक राजपूत के गुणों का पूर्णरूप से अभाव था। उसमें विलासिता अधिक थी और रात दिन वह अपने महलों में पड़ा रहता था। उसकी इस दिनचर्या ने उसको आलसी और निकम्मा बना दिया। उदयसिंह के इस प्रकार के जीवन को देखकर चित्तौड़ के सरदारों और मंत्रियों को बड़ी निराशा हुई। सबके सब चित्तौड़ के भविष्य की चिन्ता करने लगे। एक तरफ चित्तौड़ के राजदरबार की यह निराशा बढ़ रही थी और दूसरी तरफ उदयसिंह की विलासिता बढ़ती जाती थी। चित्तौड़ के सिंहासन पर उदयसिंह के बैठने के पहले दिल्ली के बादशाह बाबर का लड़का हुमायूँ दिल्ली के सिंहासन पर आसीन था। वह अपने पिता वावर के विशाल राज्य का अधिकारी हुआ था। परन्तु दिल्ली के सिंहासन पर बैठने के बाद उसके जीवन में भयंकर संघर्ष पैदा हो गये थे। इस संघर्ष के कारण उसके भाई थे। वे सब अलग-अलग राज्यों के अधिकारी थे। परन्तु उनको अपने राज्यों पर संतोष न था और वे दिल्ली के सिंहासन पर अधिकार करने की अभिलाषा से बादशाह हुमायूँ के साथ अनेक प्रकार के उपद्रव कर रहे थे। भाइयों के इन झगड़ों के कारण सिंहासन पर बैठने के बाद दस वर्ष तक बादशाह हुमायूँ ने भयानक संकटों का मुकाबला किया। इन्हीं दिनों में पठान वादशाह शेरशाह ने अपनी प्रचंड सेना लेकर कन्नौज के विस्तृत मैदानों में हुमायूँ की फौज के साथ युद्ध किया और उसको पराजित करके शेरशाह ने दिल्ली के राज्य पर अपना अधिकार कर लिया। बादशाह हुमायूँ ने पराजित होने के बाद अपने परिवार के साथ दिल्ली छोड़ दिया। उसके साथ कुछ दास दासियों के अतिरिक्त दिल्ली के सैनिक भी थे। दिल्ली से भागने के बाद भी हुमायूँ सुरक्षित न हो सका। उसके शत्रु बराबर उसका पीछा कर रहे थे और हुमायूँ सबको अपने साथ लिए हुए एक स्थान से दूसरे स्थान पर भाग रहा था। दिल्ली छोड़ कर वह आगरा चला गया और वहाँ से वह लाहौर की तरफ रवाना हुआ। लाहौर पहुँच कर भी 169
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