राज्यों की देखा-देखी राजस्थान के दूसरे राजा लोग भी अकबर की शरण में आये और अपनी स्वतंत्रता को दे कर उन लोगों ने अकवर का आश्रय प्राप्त किया। अकबर बादशाह ने जव राणा प्रताप के विरुद्ध युद्ध की तैयारियाँ की तो जो राजपूत राजा उसकी अधीनता स्वीकार कर चुके थे सभी ने अकबर का साथ देने के लिये वचन दिया। इन राजाओं का साथ देने का कुछ और भी कारण था । जो राजा मुगल साम्राज्य की अधीनता स्वीकार कर चुके थे और अकवर से मिल गये थे, राणा प्रताप ने उनको पतित समझ कर न केवल उनसे सम्बन्ध उसने स्वयं तोड़ दिया था, बल्कि उनसे कोई सम्बन्ध न रखने के लिए उसने दूसरे राजपूतों को उत्तेजित किया। उस समय अवस्था यह थी कि राजस्थान के लगभग सभी राजपूत राजा मुगल साम्राज्य से भयभीत हो चुके थे और इसीलिए उन्होंने अकवर की अधीनता स्वीकार की थी। बूंदी का हाड़ा राजा किसी प्रकार अपनी मर्यादा को सुरक्षित रख सका था। जातीयता और वंश का सम्बन्ध तोड़ देने के कारण जितने भी राजा अकबर के आश्रय में गये थे, सब के सब राणा प्रताप रुष्ट हो गये। इन राजाओं में आमेर का कछवाहा राजा मानसिंह भी था। उसके पिता ने अपनी बहन का विवाह अकबर के साथ कर दिया था। इस प्रकार अकवर मानसिंह का फूफा हुआ। इसके बदले में अकबर ने मानसिंह को अपनी सेना में सेनापति का ऊंचा आसन दिया। राजपूत राजाओं को अकवर की अधीनता में लाने के लिए मानसिंह ने बहुत बड़ा काम किया था। उसकी सहायता से अकवर के साम्राज्य की बहुत वृद्धि हुई। शोलापुर के युद्ध में विजयी होकर राजा मानसिंह अकबर बादशाह की राजधानी को लौट रहा था। रास्ते में प्रताप का अतिथि बनने के लिये उसके मन में विचार पैदा हुआ। उसने राणा प्रताप के पास इसका समाचार भेजा। राणा प्रताप कमलमीर में रहता था। प्रताप ने उदय सागर पहुँच कर उससे मिलने का प्रवन्ध किया और मानसिंह के भोजन की तैयारी वहीं पर की गयी। भोजन तैयार होने पर प्रताप के पुत्र राजकुमार अमरसिंह ने मानसिंह का स्वागत कर भोजन के लिए बुलाया। उसने आकर भोजन स्थल पर प्रताप को न देखा तो उसने अमरसिंह से पूछा । राजकुमार ने उत्तर देते हुए कहा कि सिर में पीड़ा के कारण पिता जी नहीं आ सकते । यह सुन कर उसने रोष पूर्ण स्वर में कहा- “मैं उस पीड़ा को समझता हूँ। उस शूल की अव कोई औषधि नहीं हो सकती।” राणा प्रताप ने उपस्थित होने में अपनी असमर्थता प्रकट की थी, भीतर से मानसिंह की इस बात को सुन उसने सामने आकर आवेशपूर्ण शब्दों में कहा- “मैं उस राजपूत के साथ कभी भोजन नहीं कर सकता, जो अपनी बहन-बेटियों का विवाह एक तुर्क के साथ कर सकता है।" राणा के इस उत्तर को सुनकर मानसिंह ने अपना अपमान अनुभव किया। उसने भोजन नहीं किया। भोजन के स्थान से उठते हुए मानसिंह ने प्रतापसिंह की तरफ देख कर कहा - 'आप के सम्मान की रक्षा करने के लिए ही मुझे अपनी बेटियाँ और बहनें तुर्क को देनी पड़ी हैं। अगर आप इसका लाभ नहीं उठाना चाहते तो इसका अर्थ यह है कि आप स्वयं खतरों को अपने ऊपर ला रहे हैं। यह मेवाड़ का राज्य अब आप का होकर न रहेगा।” यह कह कर वह अपने घोड़े पर बैठने लगा और उस समय प्रताप की तरफ देख कर उसने कहा- “अगर मैंने आपसे इस अपमान का बदला रणक्षेत्र में न लिया तो मेरा नाम मानसिंह नहीं हैं।" उसकी इस बात का उत्तर देते हुए प्रतापसिंह ने कहा - "मैं हर्ष के साथ उसके लिए तैयार हूँ।" जिस समय इस प्रकार की बातें राणा के साथ मानसिंह की हो रही थी, उस समय उस स्थान पर खड़े किसी राजपूत सरदार ने कुछ असम्मानपूर्ण शब्दो में मानसिंह से कहा - "उस समय अपने फूफा अकवर को भी साथ में लेते आना। उसे लाना भूल न जाना।" 179
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