इसलिए इस प्रसन्नता में अकबर ने अनेक प्रकार के सार्वजनिक उत्सव किये । प्रताप के उस पत्र को बादशाह ने पृथ्वीराज नामक एक श्रेष्ठ राजपूत सरदार को दिखाया। पृथ्वीराज बीकानेर के राजा का छोटा भाई था और वह इन दिनों में अकबर बादशाह के यहाँ कैदी था। उसके. कैदी होने का कारण यह था कि उसमें राजपूती स्वाभिमान था। दूसरे अन्य राजाओं और नरेशों की तरह वह भी अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार न था इसलिए वह कैद किया गया था और वन्दी अवस्था में वह बादशाह के यहाँ जीवन व्यतीत कर रहा था। अकबर ने प्रताप का वह पत्र बड़े अभिमान के साथ पृथ्वीराज को दिखाया। इसका कारण था। अकबर समझता था कि पृथ्वीराज भी अत्यन्त स्वाभिमानी है और उस स्वाभिमान के कारण ही वह कैदी बना है। इसलिए उसने पृथ्वीराज को वह पत्र पढ़ने को दिया । पृथ्वीराज सदा से राणा प्रताप का सम्मान करता था और राणा ने मुगल बादशाह के मुकाबले में जिस स्वाभिमान का प्रदर्शन किया था, पृथ्वीराज उसकी आराधना करता था। राजपूतों के पतन के दिनों में राणा प्रताप ने जिस राजपूती गौरव की रक्षा की है, उससे प्रसन्न होकर पृथ्वीराज बड़े स्वाभिमान के साथ बातें किया करता था। पृथ्वीराज एक अच्छा कवि था और स्वाभाविक रूप से भावुक था । बादशाह के हाथ से उस पत्र को पाकर पृथ्वीराज ने पढ़ा । उसका मस्तक चकराने लगा। उसके हृदय में भीषण पीड़ा की अनुभूति हुई। अपनी बढ़ती हुई अधीरता को सम्हाल कर अपने स्वाभाविक स्वाभिमान के साथ निर्भीकता पूर्वक उसने बादशाह से कहाः “यह पत्रं प्रतापसिंह का नहीं है। मैं उसे भली प्रकार जानता हूँ। किसी शत्रु ने राणा प्रतापसिंह के यश के साथ यह जालसाजी की है और आपको धोखा दिया है। आपके सम्पूर्ण साम्राज्य को पाने के लालच में भी वह ऐसा नहीं कर सकता।" पत्र पढ़ कर पृथ्वीसज ने ऊपर लिखे हुए शब्दों में बादशाह को उत्तर दिया और अकबर का आदेश लेकर दरबार के एक दूत के हाथ पृथ्वीराज ने अपना पत्र प्रताप के पास भेजा। उस पत्र का अभिप्राय - जैसा कि अकबर ने समझा - प्रताप की असलियत जानने की थी। परन्तु पृथ्वीराज ने अपने पत्र के द्वारा प्रताप को उसके उस स्वाभिमान का स्मरण कराया था, जिसके लिए उसने अपने परिवार और साथ के राजपूतों के साथ भयानक विपदाओं का सामना किया था। पृथ्वीराज ने यह पत्र राजस्थानी भाषा की कविता में लिखा था। वह पूरा पत्र कहीं पर भी प्राप्त होने की अवस्था में नहीं रहा। इसलिए उसका जो अंश पाया जाता है उसका अर्थ संक्षेप में इस प्रकार है- "हिन्दुओं का सम्पूर्ण भरोसा एक हिन्दू पर ही निर्भर करता है । राणा ने सब कुछ छोड़ दिया है और इसी से आज भी राजपूतों का गौरव बहुत-कुछ सुरक्षित रह सका है। यदि प्रताप ने ऐसा न किया होता तो आज राजपूतों की बची हुई मर्यादा भी सुरक्षित न रह सकती थी। राजपूतों पर आज भयानक संकट है। हमारे घरों की स्त्रियों की मर्यादा छिन्न-भिन्न हो गयी है और बाजार में वह मर्यादा बेची जा रही है। उसका खरीददार अकेला अकबर है। बादशाह ने सीसोदिया वंश के एक स्वाभिमानी पुत्र को छोड़कर सब को मोल ले लिया है। परन्तु वह प्रताप को खरीद नहीं सका । वह राजपूत नहीं है, जो 186
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