पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/१८८

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गये। उस समय देवीर नामक स्थान पर सेनापति शहबाजखाँ अपनी फौज के साथ मौजूद था। राणा प्रताप ने वहाँ पहुँचकर मुगल सेनाओं को घेर लिया। देवीर के मैदानों में दोनों ओर की सेनाओं का भीषण संग्राम हुआ। अन्त में शहबाजखाँ प्रतापसिंह के हाथ से मारा गया। उसके बहुत से सैनिकों का राजूपतों ने संहार किया। शहबाज खाँ के मारे जाने पर मुगल सैनिक इधर-उधर भाग गये। वहाँ से थोड़ी दूर पर मुगलों की दूसरी सेना पड़ी हुई थी। अपने विजयी राजपूतों को लेकर प्रताप वहाँ पहुँचा और वहाँ पर मुगलों की जो सेना थी, भयानक रूप से उसका संहार किया। मुगलों की इन दोनों सेनाओं के मारे जाने पर मुगलों में बहुत घबराहट पैदा हो गयी। राणा प्रताप पर आक्रमण करने के लिए एक तीसरी मुगल सेना वहाँ पर आ गयी। उसका सेनापति अब्दुल्ला खाँ था। यह पहले से कमलमीर में मौजूद था। राजपूतों ने अब्दुल्ला खाँ की फौज पर आक्रमण किया । सेनापति अब्दुल्ला मारा गया। राणा प्रताप ने थोड़े दिनों के भीतर ही तीन मुगल सेनाओं का संहार किया और बत्तीस दुर्गों को मुगलों से छीन कर अपने अधिकार में कर लिया। उन दुर्गों में जो मुसलमान सैनिक और उसके सेनापति थे, सभी मारे गये और सन् 1580 ईसवी में चित्तौड़, अजमेर और मण्डलगढ़ को छोड़ कर सम्पूर्ण मेवाड़ को राणा प्रताप ने जीत कर राजा मानसिंह का स्मरण किया, जिसके कारण उसको इन विपदाओं का सामना करना पड़ा। राजा मानसिंह को उसके देशद्रोह का दण्ड देने के लिए राणा प्रताप ने आमेर राज्य पर आक्रमण किया और वहाँ के प्रसिद्ध नगर मालपुरा को लूट कर बर्बाद कर दिया। इसके बाद अपनी सेना के साथ प्रताप उदयपुर की तरफ रवाना हुआ। उदयपुर में भी शत्रुओं का अधिकार हो गया था। परन्तु इस बीच में जब कई स्थानों पर मुगल सेनाओं की पराजय हुई और राणा प्रतापसिंह की राजपूत सेना आगे बढ़ी, तो उस समय उदयपुर से मुगल सेना बिना युद्ध किये चली गयी। इसके बाद अकबर ने राणा प्रताप के साथ युद्ध वन्द कर दिया।. राणा प्रतापसिंह का अब बुढ़ापा आ गया था। सम्पूर्ण जीवन युद्ध करके और भयानक कठिनाइयों का सामना करके जिस प्रकार राणा ने व्यतीत किया उसकी प्रशंसा कभी इस संसार से मिट न सकेगी। अपने जीवन में राणा ने जो प्रतिज्ञा की थी, अंत तक उसको निभाया। राजप्रासाद को छोड़कर पिछोला सरोवर के समीप प्रतापसिंह ने कुछ झोंपड़ियाँ बनवायी थीं कि जिनसे जाड़े की सर्दी में और बरसात के पानी में रक्षा हो सके। इन्हीं झोंपड़ियों में अपने परिवार को लेकर राणा ने जीवन व्यतीत किया। अब जीवन के अंतिम दिन थे। राणा ने चित्तौड़ के उद्धार की प्रतिज्ञा की थी। उसमें सफलता न मिली। परन्तु वादशाह की विशाल मुगल सेना को थोड़े से राजपूतों के द्वारा इतना छकाया कि अंत में अकबर को युद्ध बन्द कर देना पड़ा। राणा के शौर्य, स्वाभिमान और सहनशक्ति से मेवाड़ का प्रत्येक राजपूत शूरवीर और त्यागी बन गया। युद्ध बन्द होने के पहले तक राणा ने बहादुरी के साथ मुगल बादशाह से मोर्चा लिया और कभी अपना मस्तक नीचा न किया। अब वृद्धावस्था के दिन थे। एक दिन अपनी झोंपड़ी में राणा थकान और बेबसी की दशा में लेटे हुए अपने सरदारों के साथ बातें - - 188