भांति पुरानी आय के साधन भी बन्द हो गये और राज्य पर व्यय का भार बढ़ गया। ऐसे संकट में यदि प्रशासन और सैनिक वर्ग पर होने वाले व्यय के लिये आय की निश्चित व्यवस्था नहीं की जाती और आय के नवीन स्त्रोत नहीं प्राप्त किये जाते तो प्रताप के लिए सुरक्षात्मक युद्ध जारी रखना कठिन हो जाता और संभवतः मेवाड़ के कई एक जागीरदार और राजपूत सैनिक सरदार भी मुगल सेवा के लिये दिल्ली की राह पकड़ते । किन्तु राणा प्रताप और मेवाड़ का सामंतवर्ग एक ओर अपने उद्देश्यों पर एकताबद्ध और दृढ़ रहा और उनके लिये अभावों से जूझने के लिये तत्पर रहा, दूसरी ओर राज्य के लिये आय की निश्चित योजना वनाई गई। राज्य की संपूर्ण आर्थिक गतिविधियों का मुख्य आधार और केन्द्र बिन्दु सैन्य व्यवस्था का सुचारू संचालन रखा गया। कृषि उत्पादन और व्यापार सम्बंधी नवीन प्रबंध किए गए। मैदानी भाग से आये सामंती सैनिक वर्ग और कृषक वर्ग सारे पर्वतीय भू-भाग में फैल गये। उन्होंने आदिवासी भील समुदाय से मिलकर क्षि के लिये पर्वतों की घाटियों और समतल भू-भागों में नवीन भूमि तैयार की और नये-नये खेत खड़े किये, जिनसे खाद्यान्न की कमी नहीं रही। जन-जीवन के लिये आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन, सेना के लिये शस्त्रास्त्रों के निर्माण आदि की पूरी व्यवस्था की गई। अनवरत युद्ध-स्थिति के बावजूद राज्य की ओर से मालवा, गुजरात आदि प्रदेशों की ओर व्यापारिक मार्ग सुरक्षित करने की व्यवस्था की गई। इतना ही नहीं छापामार-युद्ध-प्रणाली के अनुसार मुगल सैनिक टुकड़ियों,काफिलों एवं मुगल थानों पर अचानक आक्रमण करके शस्त्रास्त्र, धन, रसद आदि लूट कर लाने की दृष्टि से योजनावद्ध कार्यवाहियां की गई, इस तरह आय वढाई गई। राज्य के सेनापतियों द्वारा अवसर देखकर मालवा, गुजरात और मालपुरा आदि क्षेत्रों से धावा मारकर प्रर्याप्त मात्रा में धन प्राप्त किया गया। प्रसिद्ध है कि प्रताप के प्रधान (दीवान भामाशाह) ने चूलिया स्थान पर वि.सं. 1635 (1578 ई) में पच्चीस लाख रूपये तथा वीस हजार अशर्फियां भेंट की। भामाशाह ने यह धन मालवा पर धावा मारकर प्राप्त किया था। नवीन आर्थिक प्रबन्ध के परिणाम 1586 ई. में प्रताप के सफल सैनिक अभियान सिद्ध करते हैं कि आप की आर्थिक योजना पूरी तरह सफल रही और ऐसा नहीं प्रतीत होता कि उसको कभी किसी भीषण आर्थिक संकट के दबाव में आना पड़ा। वस्तुतः संपूर्ण युद्धकाल के दौरान कृषि एवं वाणिज्य की कुशल व्यवस्था के कारण हजारों सैनिकों तथा नागरिकों को दैनिक आवश्यकता की वस्तुएं निरतंर प्राप्त होती रहीं। पहाड़ी स्थानों में जगह-जगह कृषि की व्यवस्था से भू-भाग को आवाद करने में सहायता मिली । शांति होने पर उपज तथा आय के साधन बढ़ते गये । कतिपय ऐसी कथाएं प्रचलित रही हैं, जैसे कि राजपरिवार को भी खाने के लिए पर्याप्त अन्न उपलब्ध नहीं होता था, धन के अभाव से निराश होकर प्रताप द्वारा मेवाड़ छोड़कर जाने का निर्णय करना पड़ा था अथवा प्रताप द्वारा अकवर की अधीनता स्वीकार करने के लिए अकबर को पत्र लिखा गया था, इन कथाओं में ऐतिहासिक सत्य नहीं है। वे केवल प्रताप के कठिन पर्वतीय जीवन और वीरतापूर्ण संघर्ष को दर्शाने हेतु दंतकथाओं के रूप में प्रचलित हुई। सामंत वर्ग और सैनिक समुदाय का सहयोग युवावस्था के काल में प्रताप न केवल आदिवासी समुदाय का प्रिय पात्र वना, अपितु वह स्वतंत्रताप्रिय और स्वाभिमानी सामंतवर्ग एवं सैनिक समुदाय का चहेता वन गया था। एक ओर उसकी सरलता, सादगी, उच्चचरित्र और सद्व्यवहार ने उसको 218
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