बादशाह अकवर के मेवाड़ को अधीन बनाने के प्रयासों को निष्फल कर दिया, अपितु उसने मुगल आधिपत्य से मेवाड़ के उस मैदानी इलाके को पुनः जीत लिया, जिसको अकवर ने 1568 ई. में चितौड़ पर विजय प्राप्त करने के बाद अपने अधीन कर लिया था। प्रताप के इस दीर्घकालीन छापामार युद्ध की महत्वपूर्ण घटनाओं के साथ भामाशाह का नाम जुड़ा हुआ । वह मेवाड़ी सेना के एक भाग का सेनापति रहा। भामाशाह अपनी सैन्य टुकड़ी लेकर मुगल थानों, काफिलों एवं मुगल सैन्य टुकड़ियों पर हमला करके मुगल जन-धन को वर्वाद करता था और धन एव शस्त्रास्त्र लूटकर लाता था। इसी भांति उसने कई बार शाही इलाकों पर आक्रमण किये और वहां से लूट कर मेवाड़ के स्वतंत्रता-संघर्ष के लिए धन और साधन प्राप्त किये। ये आक्रमण गुजरात, मालवा, मालपुरा, और मेवाड़ की सरहद पर स्थित अन्य मुगल इलाकों में किये जाते थे। जव मुगल सेनापति कछवाहा मानसिंह मेवाड़ में मुगल थाने कायम कर रहा था, उस समय प्रताप के ज्येष्ठ कुंवर अमरसिंह के साथ भामाशाह मालपुरा से धन प्राप्त करने में लगा हुआ था। वि. स. 1635 (1578 ई) में मुगल सेनापति शाहबाज खाँ द्वारा कुम्भलगढ़ फतह करने के कुछ समय बाद् ही भामाशाह के नेतृत्व में मेवाड़ की सेना ने मालवा पर जो आकस्मिक धावा किया और मेवाड़ के लिए धन और साधन प्राप्त किये, वह इतिहास-प्रसिद्ध घटना है। प्रसिद्ध है कि चूलिया में महाराणा प्रताप को भामाशाह ने पच्चीस लाख रूपये तथा बीस हजार अशर्फियां भेंट की थी। इसके संबंध में यह कथा प्रचलित है कि जब प्रताप लड़ते-लड़ते साधनों के अभाव के कारण निराश हो गया तो उसने मेवाड़ छोड़ कर चले जाने का निश्चय किया, उस समय भामाशाह ने अपनी संपूर्ण पैतृक-संपति लाकर राणा को अर्पित कर दी। किन्तु यह निश्चित है कि भामाशाह ने यह धन मालवा के इलाके पर धावा करके प्राप्त किया था जो उसने लाकर राणा को दिया। महाराणा प्रताप को अपने दीर्घकालीन संघर्ष की बड़ी सफलता 1587 ई. में मिली, जब चित्तौड़ और मांडलगढ़ को छोड़कर शेष मेवाड़ के हिस्सों पर उसका पुनःअधिकार हो गया। इस विजय अभियान में उसके प्रधान भामाशाह की प्रधान भूमिका रही। कवि दौलतविजय ने अपने ग्रंथ "खुमाणरासो" में उल्लेख किया है कि महाराणा अमरसिंह के काल में भामाशाह ने अहमदाबाद पर जबरदस्त धावा मारा और वहां से दो करोड़ का धन लेकर आया। ऐतिहासिक तथ्यों के अध्ययन के आधार पर यह आक्रमण महाराणा प्रताप के राज्यकाल में ही भामाशाह द्वारा धन एकत्रित करने हेतु किये गये अभियानों में से एक होना चाहिये । भामाशाह की मृत्यु महाराणा प्रताप के देहावसान के तीन वर्ष बाद ही हो गई थी। भामाशाह के मेवाड़ के प्रधान पद पर आसीन होने पर सैन्य-व्यवस्था एवं अर्थव्यवस्था से संबंधित गतिविधियों में उसकी प्रमुख भूमिका को देखते हुए इस बात का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था, आर्थिक प्रवन्ध, युद्धनीति, सैन्य-संगठन आक्रमणों की योजना आदि तैयार करने में भामाशाह का महाराणा प्रताप के सहयोगी एवं सलाहकार के रूप में प्रमुख योगदान रहा होगा। भामाशाह की स्वामिभक्ति भामाशाह की स्वामिभक्ति को प्रकट करने वाली एक अन्य ऐतिहासिक घटना का उल्लेख मिलता है। बादशाह अकवर अपने साम्राज्य की सुदृढ़ता एवं विस्तार के लिए भेद-नीति का सहारा लेकर राजपूत राजाओं एवं योद्धाओं को एक दूसरे के विरुद्ध करके तथा राजपूत राज्यों के भीतर वान्धवों एवं रिश्तेदारों के बीच पारस्परिक कलह पैदा करके अपने दरवार में उच्च पद, मनसब आदि देने का प्रलोभन देता था। जब अकवर की महाराणा प्रताप को परास्त करने की सभी कोशिशें नाकामयाब हो गई तो उसने प्रताप के प्रधान भामाशाह को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया। इस उदेश्य से अकबर ने अपने 224
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