धर्मों के लोगों को समान अवसर एवं समान सम्मान देने की नीति आगे भी मुगलकाल में कायम रहती । दुर्भाग्य से जहांगीर ने अकवर की नीतियों का आधे मन से पालन किया, शाहजहां ने वास अकबर से पूर्व के काल की प्रवृत्ति दिखाई और औरंगजेब ने तो उसको सम्पूर्णतः उलट कर इस्लाम धर्म की सर्वोच्चता और हिन्दू-धर्म के दमन पर आधारित इस्लामिक राज्य कायम कर दिया। वस्तुतः जब मुगल बादशाहों ने धार्मिक कट्टरता की नीति अपनानी शुरू की तब प्रताप के संघर्ष को एक अनोखा राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक महत्व प्राप्त हो गया। श्री एकलिंग के राजघराने के साथ अपने वंश का संबंध जोड़कर अपने को गौरवान्वित किया। राणा प्रतापजी का यह दीवान अब "हिन्दुआ सूरज” भी कहलाने लगा। शिवाजी जैसे वीर ने प्रताप धर्मान्धता तथा अत्याचार के विरोध का प्रतीक बन गया। प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि आखिर राणा प्रताप के पुत्र राणा अमरसिंह के काल में मेवाड़ को मुगल अधीनता. स्वीकार करनी पड़ी। यदि राणा प्रताप स्वयं ही 1572 ई. में ऐसा कर लेता तो मेवाड़ भारी बलिदानों से बच जाता। किन्तु इस तर्क में कोई दम नहीं हैं, क्योंकि 1615 ई. में जिन सम्मानजनक शर्तों पर जहांगीर ने अमरसिंह के साथ संधि की, वह राणा प्रताप द्वारा दीर्घकाल तक कठोर संघर्ष करने और स्वयं अमरसिंह द्वारा अठारह वर्षों तक लड़ते रहने के कारण ही संभव हुई। स्वतंत्रता संघर्ष की जलती मशाल पुंज राणा प्रताप का यह स्वतंत्रता- संघर्ष भारत की आने वाली पीढ़ियों के लिये प्रकाश बन गया। प्रधानतः अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध भारतीय स्वतंत्रता- संघर्ष में राणा प्रताप के उच्च आदर्श, महान् चरित्र, अदम्य संघर्ष और सर्वस्व त्याग एवं बलिदान के उदाहरण ने लाखों भारतवासियों को प्रेरित एवं प्रोत्साहित किया। उस काल में जनता में स्वतंत्रता के प्रति चेतना पैदा करने हेतु देश की विभिन्न भाषाओं में राणा प्रताप के सम्बंध में काव्य, कहानियां, नाटक, एवं उपन्यास लिखे गये। चितौड़गढ़ एवं हल्दीघाटी भारतीय स्वतंत्रता के सैनिकों के लिए पूजा के पावन स्थल बन गये, जहां की मिट्टी को सिर पर चढ़ा कर वे स्वयं को धन्य मानते थे और उसको अपने घर में पूजा -स्थल पर रखते थे। भारतीय इतिहास में वही केन्द्रीय राज्य अथवा साम्राज्य अधिक काल तक टिके रह सके, जिन्होंने निरंकुश केन्द्रीय शासन के बजाय विकेन्द्रित शासन-प्रणाली एवं प्रादेशिक स्वायत्तता को महत्व दिया। अकबर की निरंकुश शासन प्रणाली में इन बातों का अभाव था, अतएव उसके द्वारा स्थापित “राष्टीय एकता” का चिरस्थायी रहना संभव नहीं था। गहराई से देखा जाये तो प्रताप मूलत: “राष्ट्रीय एकता” की अन्य विचारधारा का प्रतिपादन कर रहा था जो केन्द्रीय हस्तक्षेप, दासता और नौकरी की स्थितियों के विपरीत केन्द्राधीन स्वतंत्र राज्यों के परिसंघ की पक्षधर थी, जिसके अन्तर्गत उनकी सांस्कृतिक विशिष्टता और राजनैतिक गरिमा एवं स्वाभिमान सुरक्षित होते। ऐतिहासिक महत्व राणा प्रताप की देन एवं ऐतिहासिक महत्व के सम्बंध में दो भिन्न प्रकार के विचार चले आते हैं। प्रथम ऐसे विचारक हैं जो प्रताप को हिन्दू-धर्म एवं सिसोदिया-वंश के गौरव की रक्षा करने वाला योद्धा मानते हैं। इस प्रकार की धारणा से ही यह भ्रामक मान्यता पैदा हुई है कि प्रताप का संघर्ष इस्लाम धर्म विरोधी था और यह कि प्रताप और अकवर के बीच का युद्ध हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच का धार्मिक युद्ध था। इस प्रकार के विश्लेषण से प्रताप केवल संकीर्ण हितों और क्षुद्र मूल्यों के लिये लड़ने वाले योद्धा के रूप में ही सामने आता है। किन्तु ऐतिहासिक सत्य यह नहीं है। प्रताप को इस तरह प्रस्तुत करना उसको 229
पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२२९
दिखावट