पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२५४

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- इसके बाद राजकुमार भीम ने अपनी सेना लेकर अकबर की फौज पर हमला किया। कुछ समय तक दोनों तरफ से भीषण युद्ध हुआ। इसमें भी अकवर की हार हुई। लगातार मुगलों की पराजय से शाहजादा अकवर घबरा गया और उसने राणा से मिल कर मित्रता कायम करने की चेष्टा की। राजपूत सामन्तों ने औरंगजेब को हटाकर उसके सिंहासन पर अकवर को विठाने का इरादा किया। इसकी तैयारियाँ आरम्भ हो गयीं। यह समाचार औरंगजेब ने सुना। वह घबरा गया। इस समय उसकी दशा बहुत दुर्वल हो गयी थी। इन दिनों में राजपूतों के साथ जो युद्ध हुआ था, उसमें कई स्थानों पर मुगलों का बुरी तरह संहार हुआ था। उसने दूरदर्शिता से काम लिया था और अपने पुत्र अकबर के नाम एक पत्र लिख कर भेज दिया। बादशाह का वह पत्र ऐसे ढंग से भेजा गया था कि वह अकवर को न मिल कर दुर्गादास को मिला। मुगल सिंहासन पर अकबर को बिठाने की जो योजना चल रही थी, उसकी जिम्मेदारी वहुत-कुछ दुर्गादास पर ही थी। पत्र को पढ़ कर दुर्गादास का विश्वास अकबर से हट गया। वह पत्र कुछ ऐसा लिखा हुआ था कि जिससे दुर्गादास को मालूम हुआ कि अकवर स्वयं सिहासन पर बैठने के बहाने राजपूतों के साथ कोई पड़यंत्र पैदा करने की कोशिश में है। इसीलिए अकवर को सिंहासन पर विठाने की जो योजना शुरू की गयी थी, वह खत्म कर दी गयी। औरंगजेब की चालाकी सफल हुई। अकवर अत्यन्त दुःखी और निराश हो कर इसके बाद फारस देश की तरफ चला गया। औरंगजेब की दशा इन दिनों में बहुत निर्वल हो गयी थी। वह अव राजपूतों के साथ युद्ध नहीं करना चाहता था। इसलिए बीकानेर के श्यामसिंह नाम के एक राजपूत को वीच में डालकर औरंगजेब ने राणा राजसिंह के साथ संधि की । परन्तु उस होने वाली संधि के पहले ही सम्वत 1737 सन् 1681 ईसवीं में राणा राजसिंह की मृत्यु हो गयी। सिंहासन पर बैठने के बाद उसने लगातार युद्ध किये थे और उसके शरीर में बहुत-से जख्म हो गये थे। उन्हीं के कारण उसकी मृत्यु हुई। राणा राजसिंह ने अपने शासनकाल में राज्य के वैभव के लिए बहुत से काम किये। गोमती नामक पहाड़ी नदी की धारा को रोक कर उसने एक बहुत बड़ी झील वनवाई और अपने नाम के आधार पर राजसमन्द उसका नाम रखा । यह झील बहुत गहरी है और उसका घेरा लगभग वारह मील का है। यह झील संगमरमर से वनवायी गयी। उसकी सीढ़ियाँ भी संगमरमर की बनी हैं। उस झील के दक्षिण की तरफ राणा ने एक नगर बसाया था और उसका नाम राजनगर रखा। उसने संगमरमर का एक मंदिर भी वनवाया था। उसको वनवाने में अट्ठानवे लाख रूपये खर्च किये गये थे। इस मंदिर के निर्माण में आर्थिक सहायता सामन्तों, सरदारों और प्रजा ने भी की थी। राणा राजसिंह की मृत्यु हो गयी और राजपूतों से लड़ते-लड़ते औरंगजेब की शक्तियाँ शिथिल पड़ गयीं। हमारा विश्वास है कि मुगलों के बाद औरंगजेब के साथ राजपूतों की समानता करते हुये पाठक मेवाड़ के राजा की प्रशंसा करेंगे। यद्यपि औरंगजेब के साथ राजसिंह की समता करना किसी प्रकार ठीक नहीं मालूम होता। नैतिकता और मनुष्यता के नाम पर दोनों पर दूसरे के प्रतिकूल थे। राजसिंह जितना ही उदार और न्यायप्रिय था, औरंगजेव उतना ही अनुदार और पक्षपात से भरा हुआ, स्वार्थी था। एशिया महाद्वीप के राजसिंहासन पर आज तक जितने भी वादशाह बैठे हैं, उन सव से अधिक औरंगजेब ने अपने जीवन में अपराध किये थे। उसने अपने राज्य में सद्भावना से अधिक पक्षपात को स्थान दिया था, लेकिन उसके फलस्वरूप राज्य की तरफ से उसके साथ कभी विश्वासघात नहीं किया गया। औरंगजेब ने अपने राज्य की 254