पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

इस प्रकार की आवाजों को सुनकर चूँण्डावत लोग भयभीत हो उठे । उन्हें विश्वास हो गया कि हमारी सेना शत्रुओं से मिल गयी। इस प्रकार का विश्वास करते ही चूण्डावत लोग युद्ध से भागने लगे। नाना गणेशपंत की सेना ने भागते हुए चूँण्डावतों का पीछा किया और उस भगदड़ में बहुत से चूंण्डावत लोग तलवारों से काट डाले गये। इसी समय सिंधिया सेना का एक अधिकारी चन्दन भी मारा गया। बहुत से सैनिक और अधिकारी घायल हुए । भागते हुए चूण्डावत राजपूत शाहपुरा पहुँचे । देवगढ़ के राजपूतों ने उनको अपने यहाँ आश्रय दिया। इस युद्ध में नाना गणेशपंत ने राजनीतिक चाल से विजय प्राप्त की और चूण्डावत राजपूत धोखे में आकर मारे गये । विजयी होने के बाद भी गणेशपंत मेवाड़ पर अपना प्रभुत्व कायम न कर पाया। राजपूत सरदारों ने पंत को अयोग्य और निर्वल समझ लिया था। इसीलिये वे सभी उसके आधिपत्य से स्वतन्त्र होने के लिए चेष्टाएं करने लगे। इसी बीच में एक बात और हुई। मेवाड़ में प्रधानता प्राप्त करने के लिये अम्बा जी और लखवादादा में झगड़ा पैदा हो गया। अम्बा जी ने मेवाड़ राज्य का सर्वनाश करने में कुछ उठा न रखा था। लखवादादा ने उसका विरोध करना आरम्भ किया। मेवाड़ के सरदार इस झगड़े और विरोध में नाना गणेशपंत के विरुद्ध उसके साथी बने । जिस समय नाना गणेशपंत की सहायक सेना हमीरगढ़ में मौजूद थी, लखवादादा ने अपनी सेना लेकर हमीरगढ़ को घेर लिया और उसके दुर्ग को गिराने के लिए तोपों की वर्षा आरम्भ कर दी। लगातार तोपों की मार से दुर्ग का एक हिस्सा गिर गया और दुर्ग में पहुँचने का रास्ता खुल गया। लखवादादा की सेना ने उसी रास्ते से उसमें प्रवेश करने का इरादा किया। इसी समय बालाराव इंगले, बापू सिन्दा और यशवंतराव सिन्दा की सेनायें नाना पन्त की सेना की सहायता करने के लिए हमीरगढ़ पहुंच गई। कोटा के जालिमसिंह ने भी उसकी सहायता करने के लिए अपना एक गोलंदाज भेजा था। अम्बा जी का लड़का उसकी सहायक सेना का सेनापति था। इन नई सेनाओं के आ जाने के कारण लखवादादा ने हमीरगढ़ से सेना हटा ली और चित्तौड़ की सीमा पर मुकाम किया। नाना गणेशपंत हमीरगढ़ को छोड़कर नई आने वाली सेनाओं से घोसुन्दा नामक स्थान पर जाकर मिला। दोनों विरोधी सेनाओं को. तो बनास नदी के दोनों किनारों पर लग गयी और दोनों सेनाएं युद्ध प्रारम्भ होने का रास्ता देखने लगी।इसी मौके पर नाना गणेशपंत और वालाराव इंगले में सेना के वेतन के सम्बन्ध में एक झगड़ा पैदा हो गया । उस झगड़े का कोई निर्णय नहीं हुआ और गणेशपंत उस स्थान को छोड़कर सिंगनेर नामक स्थान की तरफ चला गया। उस झगड़े का कोई विशेष प्रभाव उन दोनों सेनाओं पर नहीं पड़ा। मराठों का संगठन इतना दुर्बल नहीं था कि वह किसी भी आपसी झगड़े के कारण छिन्न-भिन्न हो सके और उसका लाभ वे लोग शत्रु को उठाने दें। मराठों का आपसी झगड़ा आपस तक ही सीमित रहता था और शत्रुओं से मुकाबले में वे फिर एक हो जाते थे। नाना गणेशपंत के उस स्थान से हट जाने के बाद युद्ध में रुकावट पड़ गयी। बालाराव इंगले युद्ध नहीं करना चाहता था। इसके सम्बन्ध में दो प्रकार की धारणायें पायी जाती हैं। एक तो यह कि गोगुलछता की लड़ाई में लखवादादा ने बालाराव इंगले की सहायता की थी और उसके प्राणों की रक्षा की थी। लखवादादा का यह उपकार बालाराव के सिर पर था। इसलिए वह बालाराव से युद्ध नहीं करना चाहता था। दूसरी धारणा यह है कि बालाराव इंगले के पास धन का अभाव था और उसे अपनी सेना का वेतन देना था। इसी समस्या को लेकर बालाराव और गणेशपंत में विरोध पैदा हुआ था। लखवादादा ने 298