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पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/३४७

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कार्य अभी से होना चाहिए। इस प्रकार सोच-विचार कर जोधाराव ने जागीरों की संख्या और उनकी सीमा का निश्चय कर दिया था। उसके बड़े भाई काँधल ने बीकानेर के स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की थी। उसके वंशज काँधलोत नाम से प्रसिद्ध हुये और उन लोगों ने स्वतन्त्रता के साथ वहाँ पर राज्य किया। जोधाराव के तीसरे भाई चम्पा जी ने अपने नाम पर एक शाखा की प्रतिष्ठा की और इस प्रकार की शाखायें बहुतों के द्वारा स्थापित हुई थीं। जोधाराव ने जागीरदारी प्रथा में जो परिवर्तन किये थे, उसी के अनुसार उसने भाइयों, भतीजों और पौत्रों को जागीरें दी थीं। जोधाराव ने अपने राज्य में जिस प्रकार जागीरों का विभाजन किया था, राजा मालदेव ने उनको स्वीकार किया यद्यपि उसने दूसरी श्रेणी जागीरों की वृद्ध कर दी थी, फिर भी उनकी पूर्ति राज्य की सीमा के बढ़ जाने के कारण हो गयी थी। जोधा से लेकर मालदेव तक जो जागीरें इस राजवंश के लोगों को दी गयी थी, उनके नियमों में कुछ भिन्नता थी। जो जागीरें विजय करके प्राप्त की गयी थी, उनके लिये यह नियम रखा गया कि यदि जागीरदार के कोई पुत्र न हो तो गोद लिया हुआ लड़का भी उसका अधिकारी हो सकता है। परन्तु इसके बाद जो जागीरें दी गयीं, उनमें यह नियम काम नहीं करता और वे पुत्र के अभाव में राज्य में मिला ली जाती थीं। इस प्रकार का नियम प्राचीन काल से मेवाड़ में चल रहा था। इसके पालन में कभी-कभी उपेक्षा भी हो जाती थी। ये जागीरें दो प्रकार की थीं। कुछ जागीरों में राजा को कर देना पड़ता था और कुछ में कर नहीं देना पड़ता था। सिहाजी से लेकर जोधा तक वंश के जिन लोगों का स्थान राज्य के उत्तर और पश्चिम में था, वे अपनी दुर्वल आर्थिक अवस्था के कारण और कुछ अभिमान के कारण अपनी जागीरों का स्वतन्त्रतापूर्वक भोग करते थे, इतना सब होने पर भी सभी जागीरदार मारवाड़ के राजा को प्रधानता देते रहे और जब कभी राजा पर संकट आता तो वे अपनी-अपनी जागीर के अनुसार धन देकर राजा की सहायता करते थे। ये लोग राजा को किसी प्रकार का कर नहीं देते थे। इसलिये उनकी जागीरें स्वतन्त्र मानी जाती थीं। इस प्रकार की जागीरें, जिनको कुछ नहीं देना पड़ता, बाड़मेर, कोटडा से फलसूंड तक फैली हुई थीं। इसके बाद जो दूसरी जागीरें थीं, यद्यपि वे पूर्णरूप से स्वतन्त्र नहीं थीं, तो भी वे छोटे माफीदार कहे जाते थे। आवश्यकता पड़ने पर उनसे सहायता ली जाती है और विशेष उत्सवों पर वे लोग राजा को भेंट देते हैं। महेवा और सनदारी इसी प्रकार की माफीदार जागीरों में से हैं । इस वंश के लोग पूर्वजों की उपाधि से अपना परिचय देते हैं। इनमें से कुछ लोगों को दुहड़िया, किसी को माँगलिया, किसी को ऊहड़ और किसी को धांदल के नाम से सम्बोधित किया जाता है। परन्तु उनके द्वारा इस बात का पता नहीं चलता कि ये लोग राठौड़ हैं। मारवाड़ राज्य में जागीरदारी प्रथा चल रही थी, वह सिहाजी के समय से चली आ रही थी। यही प्रथा पहले कन्नौज में चला करती थी। राजस्थान के सभी राज्यों की जागीरदारी प्रथा करीव-करीव एक-सी थी और यूरोप की जागीरदारी प्रथा से विलकुल मिलती-जुलती थी। उदयसिंह के सिंहासन पर बैठने के सम्बन्ध में भट्ट ग्रन्थों में जो उल्लेख पाया जाता है, वह एक-सा नहीं है। किसी ग्रन्थ में लिखा है कि मालदेव की मृत्यु के बाद सम्वत् 1625 सन् 1569 ईसवी में वह मारवाड़ के सिंहासन पर बैठा। कुछ ग्रन्थों में लिखा है कि वह बड़े भाई चन्द्रसेन के मारे जाने पर गद्दी पर बैठा। इस प्रकार के कुछ 393