मानसिंह को इस युद्ध में पराजित करके सवाईसिंह और जगतसिंह की आशाएँ पूरी हुई। इसी समय जगतसिंह ने सवाईसिंह को बुलाकर कहा : - "मानसिंह पराजित होकर भाग गया है। मैं अब राजकुमारी मेवाड़ के साथ विवाह करने के लिये जाता हूँ और आप जोधपुर जाकर वहाँ के राजसिंहासन पर धौकलसिंह को बिठाने का प्रबंध करिये।" सवाईसिंह दूरदर्शी और राजनीतिज्ञ था। उसने जगतसिंह की बात को स्वीकार कर लिया। परन्तु उसके साथ-साथ उसने कहा - "मानसिंह अभी तक पूर्ण रूप से पराजित नहीं हुआ। वह किसी भी समय भयानक परिस्थिति पैदा कर सकता है।" जगतसिंह के परामर्श के अनुसार सवाईसिंह अपनी सेना के साथ रवाना हुआ। जोधपुर की राजधानी न जाकर वह मेड़ता में पहुँचा और वहाँ पर वह तीन दिन तक ठहरा रहा। सवाईसिंह सोचने लगा कि मानसिंह के अधिकार में जो एक छोटी-सी सेना है, उसके द्वारा वह अपनी और राजधानी की रक्षा नहीं कर सकता। इसलिये यह निश्चित है कि वह जोधपुर से जालौर चला जायेगा। इसलिये कि वहाँ का दुर्ग अधिक सुदृढ़ और सुरक्षित है। उसके जोधपुर से चले जाने पर राजधानी में अपना रास्ता साफ हो जायेगा। यही हुआ भी। मानसिंह अपनी सेना के साथ जोधपुर छोड़कर जालौर के लिये रवाना हुआ और वह बीसलपुर पहुँच गया। उसके साथ गायनमल सिंघवी एक उच्च पदाधिकारी था। मानसिंह को जालौर जाते देख कर उसने कहा- "मेरी समझ में जालौर चला जाना आपके लिए हितकर न होगा। मारवाड़ की प्रजा उसी समय तक आप के साथ है जब तक आप जोधपुर राजधानी की रक्षा कर सकेंगे। वहाँ आपके चले जाने के बाद राज्य की प्रजा आपकी होकर न रहेगी।" अपने उस अधिकारी की बात को सुनकर मानसिंह कुछ समय तक विचार करता रहा । उसकी समझ में यह बात आ गई। उसने राजधानी की रक्षा करने की प्रतिज्ञा की और अपनी सेना के साथ वहाँ से लौटकर जोधपुर के लिये चल पड़ा। सवाई सिंह ने जो अनुमान लगाया था, वह सही न निकला। जगतसिंह को जव मालूम हुआ कि मानसिंह जोधपुर पहुँच गया है तो उसने मेवाड़ जाने का विचार छोड़ दिया और धौकल सिंह का अभिषेक करने के लिए जयपुर की विशाल सेना को लेकर वह जोधपुर की तरफ चला। मारवाड़ के बहुत से सामन्तों के विरोधी हो जाने के कारण और उनके शत्रु से मिल जाने से मानसिंह ने अपने उन सामन्तों का भी विश्वास छोड़ दिया, जो अभी तक उसके साथ थे। जोधपुर पहुँचकर वहाँ के दुर्ग की रक्षा का भार अपने सामन्तों को नहीं दिया और वैतनिक सेना के प्रधान हिन्दाल खाँ को उसका अधिकारी बना दिया। साथ ही तीन हजार शूरवीर सैनिकों को उसके नेतृत्व में दे दिया । उनके अतिरिक्त चौहान, भाटी और मन्दोर आदि राजवंशों के सैनिकों के साथ विष्णु स्वामी दल को मिलाकर दुर्ग की रक्षा के लिए नियुक्त किया। सब मिलाकर पाँच हजार सैनिक जोधपुर के दुर्ग की रक्षा के लिए नियुक्त किए गए। जोधपुर के दुर्ग का प्रबंध करके मानसिंह ने राज्य के दूसरे दुर्गों की रक्षा करना आवश्यक समझा। जालौर का दुर्ग राज्य के अन्यान्य दुर्गों में विशेषता रखता था। अमरकोट का दुर्ग राज्य की विल्कुल सीमा पर था। उन दोनों दुर्गों की रक्षा के लिए मानसिंह ने अपनी सेनाएँ रवाना की। राज्य के तीन दुर्गों पर अपनी सेनाएँ रखकर मानसिंह जोधपुर में शत्रु-सेना के आने का रास्ता देखने लगा। वह इस समय किसी प्रकार जोधपुर की राजधानी की रक्षा करना चाहता था। मानसिंह ने राजधानी के दुर्ग की रक्षा का भार वैतनिक और बाहरी सेनाओं को सौंपा था, इससे उसके साथी सामन्तों ने अपना अपमान अनुभव किया। उन्होंने असंतोष अनुभव 496
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