न भी भूँके, राजाके पहरेदार न भी जागें, नगररक्षक कोतवाल उसे न भी पहचाने, लेकिन स्वयं उसके ही शरीरके कंकण, किंकिंणि, नूपुर
और केयूर, उसकी विचित्र भाषाके विचित्र समाचारपत्र कुछ न कुछ बज ही उठेंगे, मना करनेसे न मानेंगे। पहरेदार यदि अपने हाथमे उन मुखर आभूषणोंकी ध्वनि रोक देगा, तो इससे केवल यही होगा कि उसे सोनेका अच्छा अवसर मिल जायगा लेकिन हम यह नहीं जानते कि उससे पहरेके काममें क्या सुभीता होगा!
लेकिन पहरा देनेका भार जिन जागे हुए लोगोंके हाथमें है पहरा देनेकी प्रणाली भी वे ही लोग स्थिर करते हैं। इस विषयमें विज्ञोंकी तरह परामर्श देना हमारे लिये बड़ी भारी धृष्टता है और संभवतः वह निरापद भी नहीं है। इसलिये मातृभाषाके हमारे इस दुर्बल उद्यममें दुश्चेष्टा नहीं है। तो फिर हम लोग यह क्षीण क्षुद्र व्यर्थ और विपत्तिजनक वाचालता क्यों करते हैं? केवल इसी बातका स्मरण करके कि एक दुर्बलके लिये किसी प्रबलका भय कितना भयंकर होता है!
यदि इस स्थानपर एक छोटासा दृष्टान्त दे दिया जाय तो कदाचित् वह कुछ अप्रासंगिक न होगा। थोड़े दिन हुए कि कुछ निम्न श्रेणीके अविवेचक मुसलमानोंके एक दलन कलकत्तेकी सड़कोंपर ढेले फेंककर उपद्रव करनेकी चेष्टा की थी। इसमें आश्चर्यकी बात यही है कि उपद्रवका लक्ष्य विशेषतः अँगरेजोंपर ही था। उन मुसलमानोंको दण्ड भी यथेष्ट मिल गया। लोग कहते हैं कि जो ईंटे मारता है उसे पत्थर खाने पड़ते हैं, लेकिन उन भूखेको ईंटें मारकर पत्थरसे भी कहीं बढ़कर कड़े कड़े पदार्थ खाने पड़े। उन्होंने अपराध किया और उसका दण्ड पाया; लेकिन आजतक स्पष्ट रूपसे यह समझमें न आया कि इसके अन्दर बात क्या थी। छोटी श्रेणीके ये मुसलमान