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अत्युक्ति।
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न्यूजीलैण्ड, आस्ट्रेलिया और दक्षिण आफ्रिका अपना पेट फुलाए हुए और हृष्टपुष्ट शरीर लेकर खूब रोबदाबके साथ पंडागिरी करते फिरते हैं वहाँ, दुबले पतले और जीर्णतनु भारतवर्षको कहींसे भी प्रवेश करनेका अधिकार नहीं है। ठाकुरजीका भोग भी उसके भागमें बहुत थोड़ा पड़ता है, लेकिन जिस दिन संसारके राजपथमें ठाकुरजीका गगनभेदी रथ चलता है केवल उसी एक दिन रथका रस्सा पकड़कर खींचनेके लिये भारतवर्षकी बुलाहट होती है। उस दिन कितनी 'वाहवा' होती है, कितनी तालियाँ बजती हैं, कितना सौहार्द्र दिखलाया जाता है-उस दिन कर्जनकी निषेध-शृंखलासे मुक्त भारतीय राजा-महाराजाओंके मणि-माणिक्य लंदनके राजमार्गमें झिलमिलाते हुए दिखाई पड़ते हैं और राजभक्त राजाओंकी प्रशंसाकी झड़ी लगा दी जाती है। यह सब प्रशंसा भारतवर्ष चुपचाप सिर झुकाकर सुना करता है। यह सबकी सब पश्चिमी अत्युक्ति है। लेकिन यह झूठी और दिखौआ अत्युक्ति है, सच्ची नहीं।

पूर्वीय लोगोंकी अत्युक्ति और अतिशयता प्रायः उन लोगोंके स्वभावकी उदारताके कारण ही होती है। पाश्चात्य अत्युक्ति बनावटी चीज है, उसे जाल भी कह सकते हैं। बड़े बड़े दिलदार मुगल-सम्राटोंके समय भी दिल्लीमें दरबार हुआ करता था। आज न तो वह दिन रह गया है और न वह दिल्ली रह गई है, लेकिन फिर भी दरबारकी नकल करनी ही पड़ती है। राजा लोग सदा ही पोलिटिकल एजेन्टरूपी राहुओंसे ग्रस्त रहते हैं। साम्राज्यके संचालनमें न तो उनके लिये कोई स्थान है, न उनका कोई काम है और न उन्हें किसी प्रकारकी स्वतंत्रता है। अचानक एक दिन अँगरेज सम्राट्के प्रतिनिधिने परित्यक्तमहिमा दिल्लीमें सलाम बटोरनेके लिये अँगरेजोंको तलब किया, और