यह सुनकर भरत बोले, "दुहाई आर्य की! मेरा मन यहां और शरीर वहां रहेगा। आपके नाम से मैं राज का प्रबन्ध करूंगा।"
"भ्राता भरत! ऐसा न कहो। मैं तो पिता के कहने से वन आया हूं। न क्रोध से, न गर्व से, न भय से और न बिना सोचे-समझे । हमारा वंश ही सत्यव्रती प्रसिद्ध है।"
सुमन्त ने पूछा, "अब राज्याभिषेक किसका होगा?"
राम ने उत्तर दिया, जिसका मेरी माता ने कर दिया।"
भरत बोले, "भैया! घाव पर चोट मत मारिए। मेरा-आपका एक ही वंश है। केवल माता के कारण आप मुझमें दोष नहीं निकाल सकते। आप सब मुझ दुःखी को सताइए मत।"
सीता ने राम से कहा, "आर्यपुत्र! भरत को बहुत दुःख हो रहा है। अब आप क्या सोच रहे हैं?"
"मैं स्वर्गवासी पिता की बात सोच रहा हूं, जो अपने इस पुत्र के गुण न देख सके; परन्तु भैया भरत! तुम्हें महाराज की बात कभी झूठ न पड़ने देनी चाहिए। सोचो तो, तुम्हारे जैसे पुत्र उत्पन्न करके भी कोई माता-पिता संसार में झूठे कहला सकते हैं?"
"अच्छी बात है, तो जब तक आप वनवास में हैं, मैं भी यहीं रहकर आपकी सेवा करूंगा।"
"नहीं, इस तरह पिता जी के पुण्य को नष्ट न करो। भैया! जो तुम राज्य का प्रबन्ध न करोगे, तो मैं प्रसन्न नहीं होऊंगा।"
"हाय, आपने तो मुझे कुछ कहने लायक ही नहीं रखा। अच्छा, जब तक आप वनवास में हैं, राज का प्रबन्ध मैं करूंगा।"
"क्या वनवास तक ही?"
"निस्सन्देह, इसके बाद आपको राज लेना होगा।"
"अच्छा, ऐसा ही सही।"
"आपने सुना आर्य सुमन्त! आपने भी सुना भाभी! मन्त्री जी! पुरोहित जी! नगरवासियो! आपने सुना?"
सब एक स्वर से बोल पड़े, "सुन लिया, सबने सुन लिया।"
"अच्छा तो भैया, अब आप मुझे एक वर दीजिए।"
"कैसा वर?"
"हां, एक वर। वह आपको देना ही होगा।"
"जो कुछ मेरे बस में है, तुम्हें दूंगा, मांगो!"
"अपनी खड़ाऊं मुझे दीजिए। जब तक आप वनवास से नहीं लौटते, मैं इन्हीं का दास होकर राज-काज करूंगा।"
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