पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/३१

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दीजिए कि मैं देवास्त्र धारण करके शत्रु का हनन करू ।"

विभीषण खड़े यह सब सुन रहे थे। वे बोले, "राघवेंद्र! सौमित्र का कथन सत्य है। मुझे स्वप्न में राक्षसकुललक्ष्मी ने प्रकट हो लंका का राजतिलक दिया है और सौमित्र की सहायता का आदेश दिया है। सो रघुवीर! आप निर्भय हमें देवाज्ञा पालन करने दीजिए।"

राम ने आर्द्र होकर कहा, "प्रिय मित्र! जब मैंने पिता की प्रतिज्ञा को पूरा करने हेतु राज्य त्याग वनवास-ग्रहण किया था, तब लक्ष्मण ने तरुण यौवन में सब सुखों को तिलांजलि देकर मेरे पीछे स्वेच्छा से वनवास स्वीकार किया था। माता सुमित्रा ने कहा था, "हे राम! तुमने न जाने, किस कौशल-बल रो मेरे नयनमणि का हरण किया है। तुम्हें यह धन सौंपती हूं और भिक्षा मांगती हूं कि इसे अत्यन्त यत्न से रखना। सो, अब मैं इस भ्रातृ रत्न को कैसे घोर संवट में डालूं? बन्धुवर! मैं सीता का उद्धार करना नहीं चाहता, मैं वन को लौट जाऊंगा।"

राम का यह भ्रातृप्रेम देखकर आकाशवाणी हुई, "राम! देवाज्ञा का उल्लंघन मत करो। लक्ष्मण आज अवश्य मेघनाद को मारेगा।"

आकाशवाणी की ओर राम ने धीरे से मस्तक नवा दिया फिर कहा, "जैसी देवाज्ञा! लाओ देवास्ट, मैं अपने हाथ से भ्राता को अस्त्र धारण कराऊंगा।"

राम ने अपने हाथों लक्ष्मण को अस्त्रों से सजाया । छाती पर कवच, कमर में तलवार, पीठ पर ढाल, हाथ में अक्षय तूणीर, मस्तक पर लौह शिरस्त्राण सजाकर उन्हें आशीर्वाद दिया।

लक्ष्मण बायें हाथ में दिव्य धनुष लेकर बोले, "आशीर्वाद दीजिए कि मैं आज दुनिवार शत्रु का संहार करूं।"

"भ्राता! जैसे पीठ दिखाते हो वैसे ही मुख दिखाना।" फिर उन्होंने विभीषण से कहा, "मित्र! आज मेरा जीवन-मृत्यु तुम्हारे हाथ है।"

"आप चिन्ता न कीजिए प्रभु!" कहकर विभीषण लक्ष्मणसहित चल दिए।

छ:

अशोक वन में मलिनवदना शोकाबुल सीता पृथ्वी पर बैठी हुई थीं। दो-तीन चेरियां उन्हें छेड रही थीं।

एक ने सीता को सुनाते हुए जोर से कहा, 'अरी, आज तो कनक लंका में घर-घर आनन्द-सागर कल्लोल कर रहा है। बाजे बज रहे हैं, नर्तकियां

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