सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:राबिन्सन-क्रूसो.djvu/३८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६०
राबिन्सन क्रूसो।


बन्दर में पहुँचा देने के लिए आया था। हम लोगों ने उस को अपने जहाज पर बिठा लिया। नाव वहाँ से चली गई।

मैंने समझा कि इस वृद्ध को हम लोग जहाँ जहाज ले चलने को कहेंगे वहाँ वह बेउज्र ले चलेगा। हम लोगों को अपना आशय प्रकट करना ही पड़ा। मैंने वृद्ध से जहाज़ को नानकुइन-उपसागर में ले चलने के लिए कहा-वह चीन का नितान्त उत्तरीय उपकूल था। बूढ़े ने जरा व्यंग की हँसी हँस कर कहा-"मैं नानकुइन-उपसागर को भलो भाँति जानता हूँ। किन्तु एकदम उत्तर ओर जाने का अभिप्राय क्या है?" उसकी यह व्यङ्ग की हँसी और दूसरे का अभिप्राय जानने की धृष्टता देख कर मेरा जी जल उठा। मैंने कहा-"हम लोग अपने जहाज की विक्रय वस्तुएँ बेच कर चीनी बर्तन, छींट, रेशम, चाय और कपड़े आदि देसावरी चीजें खरीदेंगे।" वृद्ध ने कहा-"यह काम तो मैकिंग बन्दर में भी बड़े सुभीते के साथ हो जाता। इतना घूम कर उत्तर और जाने की क्या ज़रूरत है?" एक बार तो मेरे मन में आया कि बूढ़े से कह दूँ कि "मेरी खुशी। मैंने खूब अच्छा किया कि टेढ़ी राह से आया हूँ और टेढ़ी राह से ही जाऊँगा इसमें तुम्हारा क्या? तुम विदेशी हो, जहाज़ों को बन्दर में पहुँचा देना ही तुम्हारा पेशा है। तुम वही करो जो मैं कहता हूँ। हल्दी बेचने वालों के लिए जवाहिर का भाव ताव करना वृथा है।" किन्तु बूढ़े को नाराज कर देना अभी अच्छा न समझ कर मैंने बड़ी मुलायमियत से कहा-"हम लोग निरे व्यवसायी ही नहीं हैं। हम लोग रईस हैं। देश देखने की भी हमारी इच्छा है। हम लोग एक बार पेकिन शहर में जाकर चीन के सम्राट का दरबार देखना चाहते हैं।" इस पर भी वह चुप