यह कि किनारे के आस पास रहने से कभी कोई जहाज़
मिल जाने की आशा थी ।
आखिर मुहाने के पास एक सुभीते की जगह देख कर मैंने बड़े बड़े कष्ट और परिश्रम से बेड़े को वहाँ लेजाकर तटस्थ भूमि में भिड़ाने की चेष्टा की । किन्तु किनारे की भूमि इतनी ऊँची ढलुवाँ थी कि फिर मेरा बेड़ा किनारे से लग कर उलटने पर हो गया । तब मैं कुछ देर तक ज्वार के और अधिक होने की प्रतीक्षा से ठहर गया । ज्वार के बढ़ने से पानी कछार के ऊपर तक पहुँच गया, तब मैंने बेड़े को किनारे लगा कर अपनी सब चीज़ों को उतार उतार कर सूखी ज़मीन पर ला रक्खा ।
मैं अब अपने रहने के लिए एक रक्षिता स्थान खोजने लगा । क्या मालूम मैं कहाँ हूँ, यह देश है या टापू ? मनुष्यों की यहाँ वस्ती है या नहीं ? हिंस्त्र जन्तु या नृशंक लोगों का यहाँ भय है या नहीं,-- मैं यह कुछ न जानता था । वहाँ से कोई एक मील पर एक पहाड़ दिखाई दे रहा था । एक बन्दूक और गोली-बारूद ले कर मैं अपने रहने को जगह ठाक करने चला । बड़े बड़े कष्ट से पहाड़ की चोटी पर चढ़कर देखा कि मैं एक टापू में आ गया हूँ । चारों ओर पानी ही पानी नजर आता था, कहीं स्थल का चिह्न भी दिखाई न देता था । पच्छिम ओर तीन-चार मील पर एक पहाड़ और दो छोटे छोटे टापू देख पड़ते थे । मैंने खूब ग़ौर करके देखा, वे दोनों द्वीप गैर आबाद थे और मनुष्य तथा हिंस्त्र पशुओं से बिलकुल खाली थे । वहाँ पक्षी असंख्य देखने में आये । वैसे पक्षी अब तक मैंने कभी न देखे थे । उन पक्षियों में कौन खाद्य थे और कौन अखाद्य, इसका भी मैं