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भग्न जहाज़ का दर्शन ।


ओर अच्छी तरह घेर घार कर के मैं जमीन में एक बिछौना बिछा कर सो रहा । मैंने अपने सिरहाने दो पिस्तौल और पास ही एक बन्दूक भर कर रख ली और निश्चिन्त होकर खूब सोया । बहुत दिनों पर बिछौने का शयन, पूर्वरात्रि का जागरण और दिन भर का परिश्रम, शीघ्र ही मेरी गाढ़ निद्रा के कारण हुए ।

एक मनुष्य के लिए मेरे घर का प्रबन्ध काफ़ी हो चुका था, किन्तु मैंने उतने पर ही सन्तुष्ट न होकर जहाज़ पर से और और चीजे ले आने का संकल्प किया । प्रतिदिन भाटे के समय जाकर जहाज़ पर से पाल और कैम्बिस काट कर ले आता था; रस्सी, डोरी, भीगी हुई बारूद का पीपा, छुरी, कैंची, लोहे की छड़े, लकड़ी और तख़े आदि जो मिल जाता उसे उठा कर वहाँ से डेरे पर मैं रोज़ लाने लगा । तीसरी बार को खोज में फिर कुछ चपातियाँ, एक बर्तन भर मैदा, और चीनी मिली । इन चीजों को मैं बड़ी हिफ़ाज़त से ले आया । चौथी बार मैंने अपने बेड़े पर इतना बोझा रक्खा कि जो किनारे आते आते उलट गया । उस पर जितनी चीजें थीं उनके साथ साथ मैं भी पानी में गिर पड़ा । उससे मेरी विशेष हानि नहीं हुई । मेरी लाई हुई उन चीज़ों में बहुत सी ऐसी थीं जो पानी में डूब नहीं उतराने लगीं । सिर्फ लोहे की वस्तुएँ डूब गई । कितनी ही वस्तुओं को मैं तैर कर पानी में से खींच लाया और कितनी ही वस्तुओं को भाटे के समय ढूँढकर निकाल लाया ।

इस तरह तेरह दिन बीते । इस बीच में ग्यारह बार जाकर जहाज़ पर से--अकेले जहाँ तक हो सका--आवश्यक