जौ का पौधा पक जाने पर मैंने बड़ी हिफ़ाज़त से उसे रक्खा, और जब उसके बोने का समय आया तब मैंने उसे बो कर अपने खाद्य-संग्रह के उपाय की आशा की। किन्तु पहले साल मैं ठीक समय पर बीज न बो सका, इस कारण आशानुरूप फल न हुआ। इस प्रकार क्रमशः खेती करने की ओर उस देश के जल-वायु की अभिज्ञता प्राप्त करते तथा अपने ख़र्च लायक़ अनाज उपजाते चार वर्ष बीत गये। पर चौथे साल भी मैं साल भर के ख़र्च चलने योग्य अनाज न उपजा सका। इसका पूरा वृत्तान्त मैं फिर किसी जगह लिखूँगा।
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१७ वीं अपरैल से ३० वीं तक--मेरे घर का घेरा, क़िला और सीढ़ी आदि सब ठीक हो गया। इस समय घेरे को लाँघ कर आये बिना कोई मुझ पर आक्रमण न कर सकता था। इससे मैं निश्चिन्त हो कर रहने लगा।
किन्तु मेरा सब परिश्रम व्यर्थ और प्राणनाश होने की एक घटना अचानक हो गई। मैं अपने तम्बू के पिछवाड़े खोह के द्वार पर बैठ कर काम कर रहा था। उसी समय एकाएक खोह की छत, और मेरे सिर पर पहाड़ से मिट्टी झड़ कर गिरने लगी। गुफा के भीतर जो दो खम्भे छत को थामे खड़े थे वे खूब ज़ोर से फट कर टूट पड़े। यह देख कर मैं बेहद डर गया मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। मैं तब भी ठीक कारण न समझ सका। मैंने समझा, जैसे पहले एक बार छत धँस गई थीं वैसे ही इस दफ़े भी कुछ घटना हुई है। किन्तु कहीं मैं इसके नीचे दब न जाऊँ, इस भय से दौड़