पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/१७

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रामचन्द्रिका सटीक । मुरति प्रीति जगजनलीना अनेकपुरुपभोगिनी परकीया इति । औ जगके जनन करिकै युक्त अर्थ अतिमुख पाइ जगजन बैठत हैं जामें प्रवीणा दोष रहित और सर्वोत्तमा नवीना पाठ होइ तौ नवोढ़ा औ नूतन याने आपनो पुरुष औ राजा सौंपी पतिकी और स्त्री औ राजपनी ३३ ॥ ३४ ॥ हाकलिकाछंद । संगलिये ऋषि शिष्यन घने । पाचकसे तपतेजनि सने ॥ देखत सरिता उपवन भले । देखन अव- धपुरी कहँ चले ३५ मधुभारछंद ॥ ऊँचे प्रवास । बहुध्वज प्रकास ॥शोभाविलास । शोभै अकास ३६ अाभीरछंद ।। अतिसुंदर अतिसाधु । थिर न रहत पल अाधु ॥ परम तपोमय मानि । दंडधारिणी जानि ३७ हरिगीतछंद । शुभ द्रोणगिरिगणशिखर ऊपर उदित औषधिसी गनो । बहु वायुवश चारिद बहोरहि अरुझि दामिनियुति मनो॥अति किधौं रुचिर प्रताप पावक प्रकट सुरपुरको चली । यह किधौं सरित सुदेश मेरी करी दिवि खेलति भली ३८ ॥ उपवन वाटिका ३५ प्रवास पर ३६ दंडधारिणी हैं दंडिन के व्रतको धरे हैं दंडी दंड धरे रहते हैं ये दंड कहे ध्वजदंड धरे हैं कैसो है ध्वजा औ दंडी अतिसुंदर हैं सुवस्त्र रचित औ तप तेज करि भव्यरूप हैं साधु राग द्वेष रहित दुवौ हैं थिर न रहत वायु योग सों चंचल रहती हैं औ अनेकतीर्थन में फिस्यो करत हैं औ परम तपोमय हैं सदा शीत घाम तोय सहती हैं औ प्राणायामादि अनेक तप करत हैं और अर्थ विरोधाभास है विरोधार्थ अतिसाधु हैं औ पल आधु थिर नहीं रहतीं तौ साधु विषे चंच- खता विरोध है औ परम तपोमय कहे बड़े तपको करती हैं औ दंडधा. रिणी हैं दंड कहे राजदंड डांडइति धारण करता है लेता है तौ तपस्वी को दंड लेको विरोध है अविरुद्धार्थ प्रथम को ते जानो ३७ द्रोणगिरि सदृश मंदिर है शिखर अग्रभाग औषधि सरिस कस्यो तासों अरुणपताका वर्णन जानो ौ कि दामिनी विजुली की युति हैं अरुझिरही हैं तिनको वारिद के वश्य है अर्थ वारिदकी आज्ञासों वायु वश कहे अनेक प्रकारसों बहो- स्त है मेघनके पास ले जावो चहत है यासों मंदिरन की अतिउच्चता