on Man Rhes zho श्रथवा करत हैं गमचन्द्रिका सटीक । १८७ बहुते जे हैं आजि कहे समरन के विराजी कडे शोभनदार अर्थ जानेक समरकर्ता तिनके मध्य में तुम पूषण कहे सूर्यसम हो कहू तपपूपणपाठ वहां अर्थ कि बहुत जे आजिविराजी सग्रामकर्ता हैं तिनके तमषूपण कहे | तमको पूपणसम हौ अर्थ जैसे सूर्य तमको नाश करत है तैसे सुभ सग्राम | कर्ता जे शत्रुभट हैं सिन्हें नाश करत हो चारि पदार्थ अर्थ धर्म काम मोर चारों पदार्थन के साधिबे को समय कहत हैं कि महीधर जे राजा हैं से सतत कहे निरतर धर्महू करत हैं औ सतत अतिमर्थ द्रव्यहू को बढ़ावत धर्मको अर्थ घढ़ावत हैं अर्थ सतरीति सो अर्थ बढ़ावत श्री संतत हित हैं रति स्त्रीभोग अर्थ कामसाधन जिनको ऐसे कोविद गावत हैं अर्थ ये तीनों एकही समयमों साध्य हैं श्री जब सतति कहे पुत्र | उत्पन भयो तब निशि औ वासर तन औ मन करिकै मुक्तिको साधन करत हैं आजतक तुम अर्थ धर्म कामको साधन कीन्हों अब तुम्हारी पुत्र समर्थ है ताको सब राज्य भार सौपि सीताको रामचन्द्र को दैक हेनुकरि मुक्ति साधन करो इति भावार्थः ।। दोहा ॥ राजा अरु युवराज गज प्रोहित मंत्री मित्र ॥ कामी कुटिल न सेंइये कृपण कृतम अमित्र १० घनाक्षरी॥ कामी वामी झूठ क्रोधी कोढ़ी कुलदेषी खलु कातर कृतघ्नी मित्रदोषी द्विजद्रोहिये । कुरुष किं पुरुष काहली कलहि क्रूर कुटिल कुमत्री कुलहीन केशौ ठोहिये ॥ पापी लोभी झूठ अंध बावरो बधिर गूगा बौना अविवेकी हठी छली निरमोहिये । सूम सर्वभक्षी दैववादी जो कुवादी जड़ अप- यसी ऐसो भूमि भूपति न सोहिये ११ ॥ ये पांचों राजादि. इन दूषण सहित होहिं तौ सेवनके योग्य नहीं होत अथवा यथाक्रम सो जानो राजा कामी काहेते उचितानुचित विचार विना सुंदरी देखि प्रजाजनकी स्त्रिनको गहि मँगायत है तासों देश उजारि होत है श्री युवराम कुटिल कहेते मत्र्यादिकन सो विरोध राज्य विध्वंस करत हैं श्रौ पुरोहित कृपण कहे दरिद्र काईते विवाहादि समयमों द्रव्यलोभषश
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