रामचन्द्रिका सटीक । २३५ | कहतही विरक्त वयन समुझि अगस्त्प बीचही में बोलि उठे तासों जो पूछिको है सो नहीं पूंचन पायें सो चौबीसवें प्रकाश में कहा है। " लो कछु | जीव उधारन को मत जानत हौ सौ कहौ मनु है रतु" कहिये को हेतु यह कि हमको कछू ऐसो उपदेश करौ जासौं संसार छूटै मुक्ति होइ १० ॥ अगस्त्य-नाराचचंद ॥ किये विशेष सों अशेष काज देव- रायके । सदा त्रिलोक लोकनाथै धर्म विप्र गायके॥अनादि सिद्धि राजसिद्धि राज आज लीजई। नृदेवतानि देवतानि दीहसुक्ख दीजई ११॥ हे त्रिलोकलोकनाथ अर्थ तीनों लोक के जे लोक कहे जन है तिन के नाथ कहे स्वामी हौ भर्थ ईश्वर हौ यासों या जनायो कि तुम्हारो बंधन कौन है जासों छूटिये की इच्छा करत हो रावण को मारि देवराय में इंद्र हैं श्री धर्म औ विष श्री गाय इनके अशेष कहे पूर्ण काम करयो अब अपनी अनादि सिद्धि अर्थ तुम्हारी परम्परा की सिद्धि है औ राज | सिद्धि कहे राजनकी सिद्धि जो रामति है ताहि लीजै नृदेवता राजा ११॥ दोहा ॥ मारे भरि पारे हितू कौन हेतु रघुनंद ॥निरानंद से देखियत यद्यपि परमानद १२ श्रीराम-तोमरछंद ॥ सुनि ज्ञानमानेसहस । जप योग याग प्रशंस ॥ जगमोझ है दुख- जाल । सुख है कहा यहि काल १३ तहँ राजहै दुखमूल । सब पापको अनुकूल ॥ अब ताहिले ऋषिराय। कहि कौन नरकहि जाय १४ चौपाई । सोदर मंत्रिनके जे चरित्र। इनके हमपै सुनि मख मित्र ।। इनहीं लगे राजके काज । इनहीं ते सब होत अकाज १५॥ एक तो तुम परमानंद रूपही हो ताई पर अरि रावणादिको मारे औं हिलू इद्रादि को पालत भये ऐसे पानवर्धक काजऊ करे ताहूपर तुम्हें निरानंदसे काहमियत है इपर्य शाारूपी जो मानस मानसर है ताके ईस ही सो जग में याग औ याग की है प्रशंसा स्तुति जिनकी दो पद साधन हैं। १२ । १३॥ १४॥ १५ ॥ - 3
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