पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/२३८

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. रामचन्द्रिका सटीक। २३७ हारिणी होति २० गुरुके वचन अमल अनुकूल।सुनत होत श्रवणनको शूल ॥ मैनबलित नववसन सुदेश। भिदत नहीं जल ज्यों उपदेश २१ ॥ जा पुरुषकी प्रीति महापुरुष जे भगवान् हैं सिनसों है ताके पास भाइ झमामारुत कहे अतिजोर वायुकी रीतिसों हरति कहे तोरति है अर्थ जैसे झझामारुत वृक्षलतानिको सोरति है तैसे यह प्रीति को तोरति है प्राशय यह कि आपु विष्णुकी स्त्री हैं तासों मीतिरूपी स्त्रीको विष्णुके पास जात देखि सौतिधर्म सों तोरति है अर्थ राजनकी प्रीति ईश्वरपर नहीं होति रूप रस गध स्पर्श शब्द ये जे पांचौ विषयरूपी मरीचिका कहे मगतृष्णा है तिनकी ज्योति में इंद्रीरूपी जे हरिण हैं तिनकी हारिणी कहे लैजानहारी होति है अर्थ मृगतृष्णासम मिथ्या जो पचा विषय है नामें | राजनकी इंद्रिनको भ्रमावति है २० मैन कहे मोम २१ ॥ मित्रनहूको मतो नलेति । प्रतिशन्दक ज्यों उत्तर देति ॥ पहिले सुनै न शोर सुनंति ।माती करिणीज्यों न गनंति २२ दोहा॥धर्म धीरता विनयता सत्य शील पाचार | राज्यश्री न गनै कछू वेद पुराण विचार २३ चौपाई ॥ सागर में बहुकाल जो रही । शीत वक्रता शशिते लही ॥ सुरतु. रंगचरणनि ते तात । सीखी चंचलताकी बात २४ काल- कूटते मोहन रीति । मणिगणते प्रतिनिष्ठुर प्रीति ॥मदिरा ते मादकता लई । मंदर उदर भई भ्रममई २५ ॥ प्रतिशब्दक कहे झाई शब्द अर्थ जैसे शब्दके साथही प्रतिशब्दक होत है तैसे राजा मित्रके वाक्य में शुभाशुभ को विचार नहीं कस्त साथही उत्तर कहे जवाब देत है नौ पहिले तो हित वाक्यको सुमति नहीं जो शोर | करि कई सो सुनियो करत है तो माती करिणीसम गनति नहीं अर्थ जैसे मोती करिणी महावत के हितक हितवमान नहीं गमति वैसे राज्यश्री मित्रादि के हितवचन नहीं गनति २२।२३ क्षीरसागर में बहुत काल रही है सहा उनको संग रगो तिनयों ये कर्म सीख हैं शीतता कहे प्रममा सेवकादिको