रामचन्द्रिका सटीक। कहे अर्थ छरी कहे ताड़नदंड है जैसे राजद्वार में ताड़नदड देखि सत्पुरुष | नहीं प्रापत तैसे राज्यश्रीयुक्त पुरुष के पास विधादि गुण नहीं आवत कुपु रुष लोभवश दडपात सहि भूपदारादि स्थल में जातही हैं तासों सत्पुरुष को राज्यसुखालस्यसों राजा गुणों को अभ्यास नहीं करत इति भावार्थः पल कहे अविन्नता नैचित्य इति हसनको मघावलीसम राजन के कलको राज्यश्री दूरि करति है इत्यर्थ अनेक शत्रु मयादि युक्त राजनको चित्त सदा रहत है इति भावार्थः शत्रुसैन्यभेदादि अनेक कपटयुक्त राजा होत हैं इति भावार्थ: ३३ वाम कहे कुटिल जो कामकदर्परूपी फरि हाथी है ताको मुवेष कई हरित कोमल कदली केरा है अर्थ गजको कदली सम कामको कल' कर्ता है अथवा सुखद है राजा अतिकामी होल है इति भावार्थः कदली- भन्नण सौ गज को पल औ सुख होत है यह मसिद्ध है औ धीर भी धर्म- रूपी द्विजराज चन्द्रमा को राहुरेख सम पीडाकर्ता है इत्यर्थः राजपधु मयादि में भेद भय मानि सदा अधीर रहत हैं श्री बालस्यवश दानादि धर्म विधिपूर्वक नहीं करत इति भाषा: ३४ । ३५ ॥ महामत्रहू होत न बोध । डसी कालअहि करि जनुकोध। पान विलास उदित आतुरी । परदारागमनै चातुरी ३६ ॥ मृगया यहै शूरता बढ़ी। बदीमुखनि चापसों पढी ॥जो केहू चितवै यह दया । बात कहै तो बडी ऐ मया ३७ दरशन दीबीई अतिदान । हॅसि बोले तो बड़ सनमान ॥जो केहू सों अपनो कहै । सपने कीसी पदवी लहै ३८ दोहा । जोई अति हितकी कहै सोई परममित्र ॥ सुखवलाई जानिये संतत मंत्री मित्र ३६॥ मत्रिन करि दीन्हे जे महामंत्र कहे बड़े बडे मंत्र हैं तिनहू सों जाको घोष ज्ञान नहीं होत सो मानो फालअहि कहे कालसर्प कारकै क्रोध करिकै इसी कहे काटी गई है अर्थ मानो क्रोधकरि कालसर्प काव्यो है जामाणी को कालसर्प काटत है ताह के झारिक के जे महामंत्र हैं तिनसों षोध ज्ञान नहीं होन अर्ध मृच्छो ही जागनि पान को मद्यपान को जो रिलास है ताही में उदिन कहे प्रकट है भानुरी शीशा जागी ३६ मगया यो धारा बड़ी no
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