रामचन्द्रिका सटीक। ३४१ ज्यों वनपावक पौनविहारे १४ भागत हैं भट यों लव आगे। रामके नाम ते ज्यों अधभागे॥ यूथप यूथ यों मारि भगायो। बात बढ़े जनु मेघ उड़ायो १५ सवैया ॥ अतिरोपरसे कुश केशव श्रीरघुनायकसों रणरीति रचे । त्यहि बार न वार भई बहुवारण खड्ग हनै न गणै विरचै ।। तहँ कुंभफट गज- मोतीक ते चले बहुशोणित रोचिरचै । परिपूरण पूरपनारन ते जनु पीक कपूरनकी किरचै १६ ॥ बूझत कहे पूँछत असु प्राण १२ कौन कहे कहा अरिके घेरे में याही बात ना घाटि है कि हमारे हाथ में शरासन धनुष नहीं है या प्रकार कहत लब नेक चित्तको दुचित्तो करयो अर्थ युद्धहू को विचार विचारत रहे औ | सूर्यकी स्तुतिहू में चित्त को लायो तब सूर कहे सूर्य बड़ो इषुधी तर्कस औ धनुष दीन्हों । यथा जैमिनिपुराणे (जैमिनिरुवाच) “ स्तोत्रेणानेन संतुष्टो रविर्दिव्यं शरासनम् ॥ ददौ खवाय शौरं च जयति श्रेयमुत्तमम् १. सुवर्ण- पट्टैरुचिरैर्निवद्धं संगुणं दृढम् ॥.धनुःप्राप्य महाबाहुर्लवः कुशमथाब्रवीत् २ उपदिष्टं हि यत्स्तोत्रं मुनिना करुणात्मना ॥ शौरं तज्जपितं भ्रातस्तस्माल्लंब्ध मया धनुः १३ । १४ रसे कहे युक्त तेहिवार कहे समयमों बार कहे बेर ना भई अर्थ थोरिही. बेर में बहुत वारण जे हाथी हैं तिनको खड्ग तरवारि सों हनत हैं औ काहूको गनत नहीं हैं औ चिरचै कहे बिरुझात हैं पीक के पूरक धार सम रुचिरहै कपूर किरच सम मोती हैं १५ । १६ ॥ नाराचछंद ॥ भगे चये चमू चमूय छोड़ि छोड़ि लक्ष्मणै। भगे रथी महारथी गयन्दवृन्द को गणै ॥ कुशैलवै निरंकुश विलोकि बंधु रामको । उठ्यो रिसाइकै बली बँध्यो सोलाज दामको १७ कुश-मौक्तिकदामछंद ॥ न हौं मकराक्ष न हौं इंद्रजीत । विलोकि तुम्हें रण होहुँ न भीत ॥ सदा तुम लक्ष्मण उत्तम गाथ | करो जनि आपनि मातु अनाथ १८ लक्ष्मण ॥ कहौ कुश जो कहि श्रावति बात । विलोक्तहौं
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