रामचन्द्रिका सटीक । केहि भांति होत २२ श्रीराम-विजय ॥ सब क्षत्रिन आदिदै काहू छुई न छुये बिजनादिक वात डगै।न घटै न बढ़े निशि- वासर केशव लोकनको तमतेज भगै। भवभूषण भूषित होत नहीं मदमत्तगजादि मषी न लगे। जलहू थलहू. परिपूरण श्रीनिमिके कुल अद्भुतज्योति जगै २३ ॥ जब विश्वामित्र जनककी स्तुति करचुके तब जनक अपने मंत्री आदिसों विश्वामित्र की बड़ाई करत हैं उत्तमवर्ण ब्राह्मण औ अरुणरंग अर्थ तपस्या करि क्षत्रियसों प्रामण भये २१ जब विमाभित्र जनकके राज्य औ योगकी स्तुति कियो तत्र संदेइयुक्त लै लक्ष्मण पूंछयो कि जे जन जगत् में राज्य औ योग दुवौ साधत हैं ते कैसे उदयको पास होत हैं काहेते राज्य श्री योग पर- स्पर कर्म विरुद्ध हैं २२ लक्ष्मण पूंछचो कि जे जन राजवंत योगवंतहैं तिनको उदोत कैसे होत हैं सो सुनिकै कहिले की अद्भुत युक्ति मन में प्राप्तभई तालों विश्वामित्रसों प्रथमही रामचन्द्रही उदोत के हेतु कहन लगे उदोत ज्योति को होत है तालिये ज्योतिरूप करि कहत हैं कि निमि जे जनक के पुरिखा हैं तिनके कुलकी जो ज्योति प्रकाशकी शिखा है सो अद्भुत जगै कहे जगति है दीपित है इति अर्थ और दीपज्योतिके सम नहीं है सो अद्भुतता कहत हैं कि दीपज्योतिको और दीपज्योति कैगकति है अर्थ समता करि सकति है अर्थ जैसे एक दीपकी ज्योति होति है तैसी सजातीय औरहू दीप की होति है औ या निमि कुलकी ज्योतिको आदिदै कहे आदिहीसों जबसों प्रकटभई है अर्थ जवसों निमि वंशभयों तबसों काहू क्षत्रिन नहीं छुयो अर्थ समता करयो फेरि कैसी है कि और ज्योति ज्यजनादि वातसों डगमगाति है यह ज्योति व्यजनादि बातों नहीं डगति आदि पहले चामरादि जानो अर्थ व्यजनादि पात भोगादिको सुख जामें लिप्त नहीं है सकत फेरि कैसी है कि और दीपज्योति दिनमें घटति है औ यह निशिवासर कहे रातिउ दिन घटति वदति नहीं है अर्थ सब प्राणी जा वंश में बरावर होतजान हैं तासों घटति नहीं औ पूर्णताको प्राप्तहै तासों वहति नहीं और दीपज्योतिसों थल- मात्रही को तम अंधकार दूरि होत है यासों कनकोत्तम तेज कहे अज्ञानको तेज दूरि होत है अर्थ जिनके उपदेश सों अथवा मानकरे सों अथवा कथा सुनिकै लोकनके प्राणिनको अज्ञान दूरि होत है बानी होत हैं फेरि कैसी
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