सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामचन्द्रिका सटीक । तुम अमल कहे माया विकार रहित औ अनत जाका अत नहीं है कि ये तो हैं औ अनादि कहे जाकी आदि नहीं कोऊ जानत कि कबसों हैं ऐसे देवहौ अर्थ परब्रह्म हौ औ तुम्हारो सबै भेव कहे भेद वेद नहीं पखानि सकत अर्थ घेदहू नहीं जाको प्रमाण पावत सब माणिन को समान हो काहूको स्वाभाविक वैर औ स्नेह तुम्हारे नहीं है केवल प्रहादादि जे भक्त है तिनके हेतु देह धरि दुख दूर करत हो या सों भक्तवत्सलता जनायो अपनपौ को पहिचानि के कि हम श्री ये एकई हैं यह जानि के इनके हाथ सो होनहार जो रावणादिवध आगिलो काज है ताको करौ तब महादेव के वचन सों जानि कहे ये नारायण हैं यह जानि के नारायण को धनुष परशुराम पै रयो सो रामचन्द्र को दियो ४७ ॥ अब आपनपो पहिचानि विप्र । सव'करहु भागिलो काज क्षिण ॥ तब नारायणको धनुष जानि । भृगुनाथ दियो रघुनाथपानि ४८ मोटनकंछद ॥ नारायणको धनुवाण लियो।ऐच्यो हॅसि देवन मोद कियो । रघुनाथ कहेउ अब काहि हनो। त्रैलोक्य कॅप्यो भय मानिधनो ४६ दिग्देव दहे बहुवात बहे । भूकंप भये गिरिराज ढहे ॥ श्राकाश विमान अमान छये । हाहा सबही यह शब्दरये ५० परशुराम-श- शिवदनाछद ॥जगगुरु 'जान्यो । त्रिभुवन मान्यो ॥ मम गति मारो हृदय विचारौ ५१॥ ४८ = छदको अन्वय एक है ४६ । ५० त्रिभुवन में मान्यो अर्थ 'जाको तीनों भुवन मानव हैं पूजत हैं श्री जगत् के गुरु जो ईश्वर है सो हम तुम को जान्यो अर्थ तुम ईश्वरही ताते और सबको निर्दोष हमको सदोष विचारि हमारी सुरपुर की गति मारो ५१॥ '. दोहा । विषयीको ज्यो'पुष्पशर गतिको हनत अनंग ॥ रामदेव त्योंही क्रियो परशुरामगतिभग ५२ चतुष्पदी बंद ।। सुरपुरगतिमानी शासनमानी भृगुपतिको सुख मारो।