पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०५५

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९८० रामचरित मानस । पकड़ कर जैसे क्षीरसागर ने रमा को ला कर सौंपा था, वैसे (लीता को अग्नि ने)रामचन्द्रजी को समर्पण किया। वे रामचन्द्रजी के बाम माग में सुन्दर विराजती है, बड़ी अच्छी छवि हुई। ऐसा मालुम होता है मानों नवीन श्याम-कमल के समीप पीत रसके कमल की कली शोभित हो रही हो ॥३॥ दो-बरपहि सुमन हरषि सुर, बाहिँ गगन निसान । गावहिं हिचर सुर-अधू, नाचहिँ चढ़ी बिमान ॥ देवता प्रसन्न हो कर फूल बरसाते हैं और आकाश में नगारे बज रहे हैं। किसान है और विमानों पर चढ़ी हुई देवाहनाएँ नाच रही हैं। जनक-सुता समेत प्रभु, सोभा अमित अपार। देखि मालु कपि हरणे, जय रघुपति सुख-सार ॥१०॥ जनकनन्दिनी के सहित प्रभु रामचन्द्रजी को परिमाण अपार शोमा देख कर भालू और बन्दर प्रसन्न हो कर सुख के स्थान रधुनाथजी की जय प्रकार करते हैं ॥१०॥ जो-तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिर नाई। आये देव सदा स्वारथी । बचन कहहिं जनु परमार्थी ॥१॥ तब रधुनाथजी की साझा पा कर और चरणों में सिर नवा कर मातलि (इन्द्रलोक को) चला गया। सदा के अपने मतलपी देवता आये, थे ऐसे वचन कहते हैं मानों परमार्थी (सत्य जितासु) हो ॥१॥ दीनबन्धु दयाल रघुराया । देव कीन्ह देवन्ह पर दाया। बिस्व-द्रोह:रत यह खल कामी । निज अघ गयउ कुमारग-गामी ॥२॥ हे देव, दीनबन्धु, दयालु, रघुनाथजी ! आपने देवताओं पर दया की। यह दुष्ट, कामी, कुमार्ग में चलनेवाला (रावण) सारे संसार के द्रोह में पत्पर था, अपने ही पापों से नाश को प्राप्त हुआ है ॥२॥ तुम्ह सम रूप ब्रह्म अधिनासी । सदा एकरस सहज उदासी॥ अकल अगुल अज अनघ अनामय । अजित अमोघ-सक्ति करुनामय॥३॥ श्राप समान रूप ब्रह्म, नाश राहत, सदा एक ढक के स्वाभाविक, उदासीन, (न किसी के शव न मित्र) श्रङ्गहीन, निपुण, अजन्मे, निर्विकार, अजीत, अव्यर्थ शक्तिवाले और दया के रूप हैं॥३॥ सूकर नरहरी । बामन परसुराम बपु धरी । जन्म जन्म नाथ सुरन्ह दुख पायो । नाना तनु धरि तुम्हहिँ नसायो ॥४॥ आपने मच्छ, कच्छप, धाराह, नृसिंह बामन और परशुराम का शरीर धारण किया। हे नाथ ! जब जब देवताओं ने दुःख पाया, तब तब अनेक देह धारण करके आप ही ने उनके कष्टों को नसाया ॥३॥ । मीन कमठ