पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७१२

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । बल से मदोन्मत्त हो कर पृथ्वी को लेकर रसातल में चला गया। सृष्टि का कार्य बन्द हो जाने से ब्रह्मा चिन्तित हुए । नारायण की स्तुति करने लगे कि, उसी समय उन्हें छींक आई और नाक के छिद्र से एक छोटा सा मक्खी के बराबर शूकर गिरा । देखते ही देखते वह बहुत बड़ा रूप का शुकर होगया । तब ब्रला जान गये कि ये शंकर रूप धारी हरि है। शूकर भगवान् पाताल में जा दैत्य का संहार कर पृथ्वी को जहाँ की तहाँ स्थित करके अपने लोक को गये। इसी स्था का सारूपक ऊपर वर्णन किया गया है। करि मनास सब कह कर बारे। राम राउ गुरु साधु निहारे॥ छमब आजु अति अनुचित मारा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा ॥३॥ प्रणाम करके सब को हाथ जोड़कर रामचन्द्रजी, राजा जनक, गुरूजी और सज्जनों का निहोरा करके भरतजी बोले । आज मेरे बड़े अनुचित को क्षमा कीजिये, कोमल मुख से कठोर बातें कहता हूँ ॥३॥ हिय सुमिरी सारदा सुहाई । मानस ते मुख-पङ्कज आई ॥ बिमल विक्षक धरम नय साली । भरत भारती मज्जु भराली ॥४॥ हदय में सुन्दर सरस्वती का स्मरण किया, वे मानस से मुख कमल में आई। भरतजी की वाणी निर्मल ज्ञान, धर्म और नीति से मिली हुई मनोहर राजहंसिनी के समान है nn यहाँ राजहंसिनी की समता देना साभिप्राय है कि जैसे भरालिनी मिले हुए दूध-पानी को लगा देती है, तैसे भरतजी की वाणी गुण-दोष को पृथक् पृथक करनेवाली है। दो-निरखि बिबेक बिलोचनन्हि, सिथिल सनेह समाज । करि प्रनाम शेले भरत, सुमिरि सीय-रघुराज ॥२६॥ शान रूपी नेत्रों से समाज को स्नेह से शिथिल देख सीताजी और रघुनाथजी का स्मरण कर प्रणाम करके भरतजी बोले ॥ २७ ॥ चौ०-प्रापितुमातुसुहृद गुरु स्वामी । पूज्य परमहित अन्तरजामी ॥ सरल सुसाहिब सील-निधानू । प्रनत-पाल सर्बज्ञ सुजानू ॥१॥ हे प्रभो! आप मेरे पिता, माता, मित्र, गुरु, स्वामी, पूज्य, परम हितकारी और सन की वात जानने वाले हैं। सीधे, सुन्दर मालिक, शील के स्थान, शरणागतों के रक्षक, चतुर और सब के शाता है॥१॥ श्राप मेरे पिता, माता, मित्र, गुरु और स्वामी हैं, बहुतों के उत्कृष्ट गुणों को एक राम- चन्द्रजी में समता लाना 'तृतीय तुल्पयोगिता अलंकार हैं। समरथ सरनागत हितकारी । गुन गाहक अवगुन-अध-हारी॥ स्वामि गोसाइहि सरिस गोसाँई । माहि समान में साँइ-दोहाई ॥२॥ समर्थ शरणागों के हितकारी, गुणे के ग्राहक, दुगुण और पापो के हरनेवाले हैं। स्वामी आप के समान आप ही है और स्वामिद्रोही मुसलमान मैं ही हूँ ॥२॥