पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७४५

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। रामचरितमानस । ६४ अजामि . भाववल्लभ । कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥ स्वमक्त-कल्पपादपं । समं सुसेव्यमन्वह ॥१०॥ आप को प्रेम प्रिय है, कुयोगियों (विषयी प्राणियों) अत्यन्त दुर्लभ, अपने भक्तों के लिए कल्पवृक्ष के समान ( न किसी के शत्रु न मित्र ) और निरन्तर सेवा करने योग्य है, मैं श्राप को भजता हूँ॥ १०॥ अनूप रूप भूपतिं । नतोह मुर्विजापतिं । प्रसीद मे नमामि ते । पदावज भक्ति देहि मे ॥११॥ राजा का अनुपम रुप लिये, जानकीजी के स्वामी को मैं प्रणाम करता हूँ। आप मुझ पर प्रसन्न हो कर अपने घरण-कमलों में भक्ति दीजिये, मैं नमस्कार करता हूँ॥११॥ पठन्ति ये स्तवं इदं । नरादरेण ते पदं ॥ ब्रजन्ति नात्र संशयः । त्वदीयाक्ति संयुत्ताः ॥१२॥ जो मनुष्य आदर से इस स्तोत्र का पाठ करते हैं, वे आप की भक्ति से युक्त हो कर भाप के पद ( वैकुण्ठधाम) को चले जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं ॥ १२ ॥ दो-बिनती करि मुनि नाइ सिर, कह कर जारि बहोरि । चरन सरोरुह नाथ जनि, कबहुँ तजइ मति मारि ॥ मुनि ने विनती करके मस्तक नवाया, फिर हाथ जोड़ कर कहने लगे। हे नाथ ! मेरी बुद्धि श्राप के चरणकमलों को कभी न छोड़े॥४॥ चौ०-अनसूया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता। रिषि-पतनी-मन सुख अधिकाई । आसिष देइ निकट बैठाई ॥१॥ फिर सीताजी सुन्दर शील और नम्रता से अनसूया के पाँव पकड़ कर मिखीं । ऋषि- पत्नी के मन में बड़ा आनन्द हुश्रा, आशीर्वाद दे कर पास में बैठाया ॥१॥ दिव्य बसन भूपन पहिराये । जे नित नूतन अमल सुहाये । कह रिषि बधू सरस मृदु बानी। नारि-धरम कछु ब्याज बखानी ॥२॥ दिव्य वस्त्र और गहने (सीताजी को) पहनाये जो नित्य नये, निर्मल और मुहावने रहते हैं। ऋषि-पत्नी रसीली कोमल वाणी से कुछ स्त्री-धर्म वहाने से बखान कर कहती हैं ॥२॥ कहती वो सीताजी से हैं, परन्तु उद्देश्य संसार के प्रति 'शूढोक्ति अलंकार' है। मातु-पिता-साता हितकारी । मित-प्रद सब सुनु राजकुमारी । अमित-दानि अत्ता बैदेही । अधम सो नारि जो सेव न तेही ॥३॥ हे राजकुमारी ! सुनो, माता पिता और भाई इन सब की हितकारिता तौली हुई है। परन्तु हे विदेहनन्दिनी ! पति वे प्रमाण आनन्द देनेवाला है, वह स्त्री प्रधम है जो पति की सेवा नहीं करती ॥३॥