पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७०२ रामचरित मानस । श्रीमद्भागवत में नवधा-भक्ति इस प्रकार वर्णन की गई है--"श्रवणं कोर्शन वियोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वंदनं वास्यं सत्पमात्मनिवेदनम् ॥" सन्त-चरन-पङ्कज अति प्रेमा । मन क्रम बचन भजन दृढ़नेमा । गुरु पितु मातु बन्धु पति देवा । सब मेाहि कह जानइ दृढ़ सेवा ॥५॥ सन्तों के चरण-कामलों में अत्यन्त प्रेम हो, मन, कर्म और वचन से भजन का पक्का नियम हो । गुरु, पिता-माता, भाई, स्वामी और देवता सब मुझे जान कर दृढ़ सेवा करे ॥५॥ मम गुन-गावत पुलक सरीरा । गदगद-गिरा नयन बह नीरा ॥ काम आदि मद दम्म न जाके । लात निरन्तर बस मैं ताके ॥६॥ मेरा गुण गाते हुए शरीर पुलकित हो जाय और वाणी गद्गद होकर नेत्रों में जल बहने लगे । जिसके काम आदि (क्रोध, लोभ, मात्सर्य, ईया) मद और दम्भ नहीं है, हे भाई! सदा मैं उसके वश में रहता हूँ ॥६॥ दो०-बचन करम मन मोरि गति, भजन करहिं नि:काम ! तिन्ह के हृदय-कमल मह, करउँ सदा बिखाम ॥१६॥ वचन, कर्म और मन से जिनको मेरा ही अवलम्ब है एवम् निष्काम भाव से भजन करते हैं। उनके हृदय रूपी कमल में मैं खदा विश्राम करता हूँ॥१६॥ चौल-अगति-जोग सुनि अति सुख पाया। लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरनावा एहि बिधि गये कछुक दिन बीती । कहत बिराम ज्ञान गुन नीती॥१॥ भक्तियोग सुन कर लक्ष्मणजी को बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ, उन्होंने प्रभु रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाया । इस प्रकार वैराग्य, ज्ञान, गुण और नीति कहते कुछ दिन बीत गये ॥१॥ सूपनखा रावन के बहिनी । दुष्ट हृदय दारुन जसि अहिनी॥ पजुबटी सो गइ एक 'बारा । देखि बिकल भइ जुगल कुमारा ॥२॥ रावण की बहन शूर्पणखा जो दुष्ट हश्या नागिन जैसी भीषण थी । वह एक बार पचवटी में गई और दोनों कुमारों को देख कर (काम-भाव से) व्याकुल हुई ॥२॥ समान नख होने से इसका शूर्पणखा नाम पड़ा। यह कालखन के वंस में उत्पन्न बड़ा प्रतापी राक्षस विद्युज्जित के साथ व्याही गई थी । रावण ने एक बार कुल होकर विद्युज्जिह की लड़ाई में मार डाला। जब शुर्पणखा विधवा हो गई, तब रावण के पास आ कर विलाप करने लगी। रावण के हवय में दया आई, चौदह हज़ार राक्षस इसकी रक्षा के लिए साथ मैदे कर दण्डकारण्य में सुख-पूर्वक निवास करने की आशा दी। तब से यह वृद्ध डरावनी राक्षसी इस धन में विचरती हुई विहार करने लगी। सूप