पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८३६

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चतुर्थ सोपान, किष्किन्धाकाण्ड । ७६६ पवन-तनय सब कथा सुनाई । जेहि बिधि गये दूत समुदाई ॥५॥ जिस प्रकार दूतो का समुदाय भेजा गया था, पवनकुमार ने यह सब वृत्तान्त कह सुनाया ॥५॥ दो०- हरषि चले सुग्रीव तब, अङ्गदादि कपि साथ । रामानुज आगे करि, आये जहँ रघुनाथ ॥२०॥ तब सुग्रीव अङ्गद आदि बन्दरों को साथ ले प्रसन्नता ले लक्ष्मणजी को नागे करके चले और जहाँ रघुनाथजी थे वहाँ आये ॥२०॥ चौ०--नाइ चरन सिर कह कर जोरी । नाथ मोहि कछु नाहि न खोरी । अतिसय प्रबल देव तव माया। छूटइ राम दोया ॥१॥ चरणों में सिर नवा हाथ जोड़ कर बोले हे नाथ! मेरा कुछ दोष नहीं है । हे देव ! आपकी माया बड़ी ही जोरावर है, यदि आप दया करें तो वह छूट सकती है ॥१॥ विषय-वस्य- सुर-नर मुनि स्वोमी । मैं पामर पसु कपि अति कामी ॥ नारि नयनसर जाहि न लागा। घोरक्रोध-तम-निसि जो जागा ॥२॥ हे स्वामिन् ! देवता, मनुष्य और मुनि विषय के वश में हैं, फिर मैं तो अत्यन्त कामी, अधम पशु बन्दर हूँ।स्त्री के नयन बाण जिन्हें नहीं लगे और जो क्रोध-रूपी अँधेरी रात में जागते हैं अर्थात् क्रोध के वश में नहीं होते ॥२॥ जय देवता, मुनि, मनुष्य विषय के अधीन हैं तो मैं नीच पशु किस गिनती में हूँ 'काव्यार्थापति अलंकार, है। लाभ पास जेहि गर न बंधाया। सेो नर तुम्ह समान रघुराया ॥ यह गुन साधन तें नहिँ होई । तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई ॥३॥ है ! रघुराज लोभ के बन्धन से जिसने अपना गला नहीं बँधवाया, वह मनुष्य आप के बराबर है। ये गुण साधना से नहीं होते, आप की कृपा से कोई कोई पाते हैं ॥३॥ तब रघुपति बाले मुसुकोई । तुम्ह प्रिय माहि भरत जिमि भाई ॥ अब सोइ जतन करहु मन लाई । जेहि बिधि सीता के सुधि पाई ॥४॥ तब रघुनाथमी मुस्कुरा कर बोले-हे भाई ! तुम मुझे वैसे ही प्यारे हो जैसे भरत प्रिय हैं। अब मन लगा कर वह उपाय करो जिस तरह सीता की खबर मिले ॥४॥