पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१९९

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| वह युक्ति मेरे वश में है; पर हे राजन् ! मेरा जाना तुम्हारे नगर में हो के में नहीं सकता। जब से हुआ हैं, तब से आज तक मैं किसी के न घर गया हूँ, न तीन ॐ गाँव में । जौं न जाउँ तव होइ अकाजू ॐ बना आइ असमंजस आजू । सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी ॐ नाथ निगम असि नीति बखानी एम् पर, यदि न जाऊँ, तो तुम्हारा काम बिगड़ता है। आज यह बड़ी दुविधा आ पड़ी है। राजा यह सुनकर कोमल वाणी से बोला—हे नाथ ! शास्त्र में ऐसी । नीति कही है-- 3 बड़े सनेह लधुन्ह पर करहीं ॐ गिरि निज सिरन्हि सदा तृन धरहीं है ॐ जलधि अगाध मौलि' बह फेनू ॐ संतत धुरनि धरत सिर रेनू ॐ राम) बड़े लोग छोटों पर स्नेह करते हैं। पर्वत अपनी चोटी पर सदा तृण को ॐ धारण किये रहते हैं। अथाह समुद्र के सिर पर फेन बहता रहता है, पृथ्वी अपने राम सिर पर सदा धूलि धारण किये रहती है। अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल । - मोहि लागि दुख सहिअ प्रभुसज्जन दीनदयाल ।१६७ ऐसा कहकर राजा ने मुनि के पैर पकड़ लिये और कहा-हे स्वामी ! कृपा कीजिये । आप सज्जन हैं, दीनों पर दया करने वाले हैं, मेरे लिये दुःख सहिये। जानि नृपहि आपन अधीना ॐ बोला तापस कपट प्रबीना सत्य कहउँ भूपति सुनु तोहीं ॐ जग नाहिंन दुर्लभ कछु मोहीं राजा को अपने वश में जानकर कपट में प्रवीण तपस्वी बोला--हे राजन् ! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, संसार में मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है। अवसि काज मैं करिहउँ तोरा $ मन तन बचन भगत नैं मोरा एन जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ ॐ फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ मैं तुम्हारा काम अवश्य ही करूंगा; क्यों कि तुम मन, वचन और कर्म से मेरे भक्त हो; पर योग, युक्ति, तप और मन्त्र का प्रभाव तभी फल देता है, जब । वे छिपाकर किये जाते हैं। १. सिर । २. सदा ।।