पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२१४

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  1. बाला : ६ २११ ॐ इंद्रजीत सन जो कछु कहेॐ ॐ सो सब जनु पहिले करि रहेछ । एम प्रथमहं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा ॐ तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा पुन

| मेघनाद से उसने जो कुछ कहो, उसे उसने मानों पहले ही से कर रहा सुना था । जिनको उसने पहले ही आज्ञा दी थी, उन्होंने जो करतूतें कीं, उन्हें सुनो। । देखत भीमरूप स पापी ॐ निसिचर निकर देव परितापी'। । करहिं उपद्रव असुर निकाया ॐ नाना रूप धरहिं करि माया 'सब राक्षसों के समूह देखने में भयावने, पापी और देवताओं को कष्ट देने वाले थे । वे राक्षसों के समूह उपद्रव करते थे और माया से तरह-तरह के रूप धरते थे। जेहि बिधि होइ धरम निमूला ॐ सो सेव करहिं वेद प्रतिकूला राम जेहि जेहि देस धेनु द्विज पावहिं के नगर गाउँ पुर आग लगावहिं। जिस प्रकार धर्म की जड़ कटे, वे वही सब बेद के विरुद्ध काम करते थे। जिस-जिस स्थान में वे गायों और ब्राह्मणों को पाते थे, उसी नगर, गाँब और ना पुर में आग लगा देते थे। सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई ॐ देव विप्र गुर मान न कोई नहिं हरि भगति जग्य जप दाना ) सपनेहुँ सुनिश्च न वेद पुराना | कहीं भी शुभ आचरण नहीं हो रहा था। देवता, ब्राह्मण और गुरु को कोई नहीं मानता था । न हरि-भक्ति थी, न यज्ञ, जाप और दान था । वेद और पुराण तो स्वप्न में भी सुनने को नहीं मिलते थे। एने छंद-जप जोग विरागा लप सखागा वनसुनइससीसा। उन आपुन उठि धावइ रहै न पावइ धार सर्व घालइ खीसा ॥ अस भ्रष्ट अचार | संसार धरम सुनिअ नहिं काना।। तेहि बहु बिधि त्रास देस लिसइ जो कह वेद पुरला ।। | जप, योग, वैराग्य, तप, यज्ञ में भाग पाने की बात रावण कहीं कानों में * सुनता, तो स्वयं उठ दौड़ता, कोई रहने नहीं पाता और सबको पकड़कर नष्ट- गुरु ॐ भ्रष्ट कर डालता था । संसार में ऐसी भ्रष्ट आचार फैल गया कि धर्म तो कहीं । १. कष्ट देने वाले ।