हिंदुस्तानी का आग्रह क्यों १०३ नाम से याद करके साबित कीजिए कि यह पूरे मुल्क हिंदुस्तान की जवान है और इसका यही नाम इसके पूरे मुल्क की ज़बान होने की दलील है। (नुकूशे सुलैमानी, दारुल्मसन्नफीन, आजमगढ़, पृ० १६१) 'इंडिया मुसलिम एजुकेशनल कांफ्रेंस' की अलीगढ़ की इजलास (सन् १९३७ ई० ) में अल्लामा सैयद सुलैमान साहा ने जो कान भरा वह यह है- "लेकिन हम अपने बदगुमान दोस्तों को बावर ( सचेत ) करना चाहते हैं कि यह ल फ्ज हिंदुस्तानो' मुसलमानों के इसरार ( आग्रह) से और मुसलमानों की तिफलतसल्ली (फुसलावे ) के लिये रखा गया है और इससे मुराद हमारी वही ज़बान है जो हमारी आम बोलचाल में है। हमको जो कुछ शिकायत है वह यह है कि हिंदी और हिंदु- स्तानी को हममानी और मुरादिफ (पर्याय ) क्यों ठहराया गया है।" (वही, पृ० १०६) यदि बात यहीं तक रहती तो कोई बात न थी; पर घोषणा तो यहाँ तक हो चुकी है कि- "यह समझना भी दुरुस्त नहीं कि इस तजवीज़ को पेश करनेवालों का यह मकसद ( उद्देश्य) है कि हम अपनी ज़बान में कोई ऐसी तब- दीली कर लें जिनमें वह 'हिंदी' या हिंदी के करीब बन जाय । हाशा व कल्ला (कदापि ) इस किस्म की कोई बात नहीं है, बल्कि वेऐनही (वस्तुतः ) इत्ती उर्दू, इसी ज़बान, इसी बोलचाल को जो हम बोलते हैं हम हिंदुस्तानी कहते हैं ।" (वही ) अस्तु, मुसलमान चाहें तो उर्दू को अपनी ज़बान के रूप में पढ़ें पर राष्ट्रभाषा तो वह होने से रही। आज भी लगभग एक
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