१०६ राष्ट्रभाषा पर विचार इसमें तो संदेह नहीं कि प्रकृत पंक्तियों में कहीं 'संमेलन' की भर्त्सना नहीं है। हाँ, उसकी किसी 'बैटक' का उल्लेख अवश्य है। श्रद्धेय टंडनजी का यह कहना अक्षरशः सत्य है कि 'संमेलन' के किसी 'अधिवेशन' ने 'हिंदी-हिंदुस्तानी' को राष्ट्रभाषा का पर्याय घोषित नहीं किया किंतु उनका यह बताना कि 'संमेलन का उससे कोई नाता नहीं ठीक नहीं। यदि विश्वास न हो तो उसी हिंदी-साहित्य-संमेलन' के मद्रासवाले अधिवेशन में आ जाइये । आपके सामने खुले अधिवेशन में पास होता - 'यह संमेलन गवर्नमेंट श्राफ इंडिया कानून की भाषा संबंधी नीति का विरोध करता है। संमेलन इस बात पर जोर देता है कि केंद्रीय व्यवस्थापक सभा का कार्य हिंदी हिंदुस्तानी में तथा प्रांतीय व्यवस्थापक सभाओं कार्य प्रांतीय भाषाओं में हुश्रा करे । हिंदी-साहित्य संमेलन के मद्रास के इस छठे प्रस्ताव की हिंदी हिंदुस्तानी' को अच्छी तरह समझने के लिये यह आवश्यक है कि उसके आठवें प्रस्ताव को भी सामने रख लें और फिर प्रत्यक्ष देख लें कि हिंदी-साहित्य-संमेलन' किस प्रकार और कहाँ तक स्वय 'हिंदी-हिंदुस्तानी' को अपना रहा है और साथ ही केंद्रीय व्यवस्थापक सभा' एवं 'अखिल भारतीय समिति और कार्यसमिति को भी इसके लिये निमंत्रण देता है। 'व्यवस्थापक सभा' का प्रस्ताव पहले आ चुका है। अब कांग्रेस संबंधी प्रस्ताव को लीजिए- यह संमेलन कांग्रेस की कार्यसमिति से अनुरोध करता है कि वह ऐता निश्चय करे कि भविष्य में कांग्रेस की और उसकी अखिल भारतीय समिति और कार्यसमिति की कार्रवाई में अंग्रेजी भाषा का उपयोग
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