राष्ट्रभाषा पर विचार भोजपुरी की गणना बिहारी' के भीतर ही होती है, बाहर कदापि नहीं। रही बिहारियों के 'अपमान' की बात सो उसके विषय में हमारा कथन यह है- हाँ, बिहार के प्रसंग में इस मागधी की भी कुछ चर्चा हो जानी चाहिये। भाषा के क्षेत्र में बिहारी सजन किस दृष्टि से देखे जाते हैं, इसके कहने की कोई आवश्यकता नहीं। उर्दू के लोग उनकी जबान से कितनी दूर रहना चाहते हैं, इसका कुछ पता शेख इमामबख्श नासिख की उस करनी से लगाया जा सकता है जिसका परिचय उन्होंने अजीमाबाद (पटना) से भागते समय दिया था। बिहारियों के बीच रहने से उनकी जबान खराब हो रही थी। पर हिंदीका प्राचार्य भिखा- रीदास भाषाको कोई छुईमुई जैसी चीज नहीं समझता । उसकी दृष्टि में उसमें मागधी का भी उचित पुट दिया जा सकता है। भला कौन कह सकता है कि कितने दिनों से हमारे देश के प्राचार्य भाषा के 'षटस' में मग्न हैं और अन्य भाषाओं के मुघर शब्दों को अपनाने में लीन । (बिहार में हिंदुस्तानी, पृ० ४१-४२) उक्त अवतरणों में बिहारी सज्जनों का अपमान है अथवा मान, इसका निर्णय हम उन्हीं की न्यायबुद्धि पर छोड़ देते हैं और इस प्रसंग का एक दूसरा अवतरण उनके सामने रख देते हैं। यह अवतरण 'उर्दू की उत्पत्ति' नामक लेख से लिया गया है जो अब भाषा का प्रश्न (ना० प्र० सभा काशी से प्राप्य) नामक पुस्तक में छपा है। प्रकृत पुस्तक के पृ० १३१ पर आपको दिखाई देगा- साहब किचलः । श्रापने किराया दिया है, बेशक गाड़ी में बैठिए। मगर बातों से क्या तबल्लुक ? उसने कहा-'इज़रत क्या मुज़ायकः
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