राष्ट्रभाषा व संमेलन १८३ व्याख्या लादी नहीं जा सकती। अतः राष्ट्रभाषा प्रचारकों को यह कहने का अधिकार होना चाहिए कि राष्ट्रभाषा का नाम हिंदी भी है और हिंदुस्तानी भी और बह विशेषतः नागरी लिपि और कुछ प्रांतों में फारसी लिपि में भी लिखी जाती है। प्रांत, वर्ग व विषय के अनुसार उसकी कई शैलियाँ हैं। लेकिन संस्कृत प्रचुर शैली ज्यादा प्रचलित है। अपनी अपनी आवश्यकता व रुचि के अनुसार हर कोई अपने लिये शैली और लिपि को पसंद कर लेता है । राष्ट्रभाषा की बोलचाल की शैली वही है जो सारे हिंदुस्तान के कोने कोने में समझी व बोली जाती है। युक्त-प्रान्त सदियों से अन्य प्रांतों का पथ प्रदर्शक रहा है । भाषाओं और संस्कृतियों की प्रयोगशाला का काम उसने किया है। विभिन्न भूभागों की जातियों व संस्कृतियों को गंगा और यमुना नदी में धो धोकर उसने भारती मप दिया है और उन्हें भारत के अन्य प्रान्तों में पहुँचाचा है। युक्तप्रांत में इतनी क्षमता, शक्ति, सजीवता और दूरदर्दिता है कि वह आज भी शुद्ध राष्ट्री- यता का संदेश देश को दे सके! अगर वह वर्तमान कलुषित वातावारण के प्रभाव से, क्षणिक परिणामों के लोभ से, मलिन व संकुचित विचार-धारा के दवाव से, अपनी देन में हमेशा अपनापन ही देखने की लालसा से, देश के सामने कोई कार्यक्रम रखे तो २०--इस प्रशस्ति का पाठ तो बहुत होता है पर इसका अर्थ कुछ विशेष होता है जो सब की समझ में नहीं आता । संभवतः वह तब तक दुरूह ही रहेगा जन्न तक हिंदुस्तानी की गाड़ी को नाव पर लादकर मरुस्थल पार करना है।
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